श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥9॥
श्रोत्रम्-कान; चक्षुः-आँखें; स्पर्शनम्-त्वचा इन्द्रिय, च-भी; रसनम्-जीभ, घ्राणम्-नासिका; एव-भी; च–तथा; अधिष्ठाय–स्थित होकर; मन:-मन; च-भी; अयम्-यह; विषयान्–इन्द्रिय विषय; उपसेवते–भोग करता है।
Translation
BG 15.9: कान, आंख, त्वचा, जिह्वा और नासिका के इन्द्रिय बोध जो मन के चारों ओर समूहबद्ध हैं, के साथ देहधारी आत्मा इन्द्रिय विषयों का भोग करती है।
Commentary
हालांकि आत्मा दिव्य होने के कारण प्रत्यक्ष रूप से स्वाद, स्पर्श, अनुभव करना, सूंघ या सुन नहीं सकती तब फिर यह ऐसे भोगों को कैसे ग्रहण कर सकती है? इसका उत्तर है-इन्द्रियाँ और मन इसमें उसकी सहायता करते हैं। इन्द्रियाँ और मन वास्तव में जड़ हैं लेकिन ये आत्मा की चेतना से सक्रिय होकर उसके जैसे जीवंत हो जाते हैं। इसलिए वे पदार्थों, परिस्थितियों, विचारों और व्यक्तियों के संपर्क से सुख-दुख की अनुभूति करते हैं।
अहंकार के कारण आत्मा अपनी पहचान मन और इन्द्रियों के साथ करती है और परोक्ष रूप से उसी प्रकार के आनन्द की अनुभूति करती है। समस्या यह है कि आत्मा अपने आप में दिव्य है किन्तु वह जिन सुखों की अनुभूति करती है वे भौतिक हैं। इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि इन्द्रियाँ और मन आत्मा को चाहे कितना भी सुख प्रदान करते हैं किन्तु फिर भी वह अतृप्त रहती है। ऐसा प्रतीत होता है कि इसने अभी तक अपने दृढ़ लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया और इसकी पूर्ण आनन्द प्राप्त करने की खोज जारी रहती है जो इसे वास्तव में तृप्त कर सके। अमेरीकन दार्शनिक रॉल्फ वॉल्डो एमर्सन ने इसका अति सुंदरता से वर्णन किया है-"हम मानते हैं कि मानव जीवन दुखमय है लेकिन हमें कैसे ज्ञात हुआ कि यह दुखमय है? इस असहजता और इस चिरकालिक असंतोष का आधार क्या है? इस अभाव और अज्ञानता का सार्वभौमिक अभिप्राय क्या है और क्या आत्मा केवल एक उत्कृष्ट अंतदृष्टि द्वारा इसका विलक्षण रूप से समर्थन करती है?" अन्य विख्यात दार्शनिक मेस्टर एक्खर्ट लिखते हैं, “आत्मा में कुछ तो ऐसा है जो सभी जीवित प्राणियों से परे दिव्य और सरल है। यह ज्ञान केवल उपर्युक्त मूलभूत सार के साथ संतुष्ट करता है।"
जिस असीम नित्य और दिव्य आनन्द को आत्मा प्राप्त करना चाहती है वह उसे केवल भगवान से प्राप्त हो सकता है। जब किसी को यह अनुभव हो जाता है तब वही इन्द्रियाँ जो मन के बंधन का कारण थीं वे भगवान की दिशा की ओर अग्रसर हो सकती हैं और इनका उपयोग भक्ति के साधन के रूप में किया जा सकता है। इसका अद्भुत उदाहरण संत तुलसीदास हैं जिन्होंने हिन्दी में रामचरितमानस की रचना की है। अपनी युवावस्था में उनकी अपनी पत्नी में अत्यंत आसक्ति थी। एक बार वह कुछ दिनों के लिए अपने मायके रहने चली गयी। जब तुलसीदास में उनसे मिलने की उत्कंठा उत्पन्न हुई तब वह अपने ससुराल की ओर चल दिए। लेकिन मार्ग में पड़ने वाली नदी का बहाव अत्यंत तीव्र था और कोई नाविक भी उन्हें नदी पार कराने के लिए तैयार नहीं हुआ क्योंकि उस समय मूसलाधार वर्षा हो रही थी। एक मृत शव नदी में तैर रहा था। अपनी पत्नी से मिलने की तीव्र इच्छा में लीन तुलसीदास ने उसे लकड़ी का लट्ठा समझा। उन्होंने लाश से लिपट कर नदी पार की। अपनी पत्नी से मिलने की इच्छा उन पर इतनी हावी हो गयी थी कि घर के बाहर की दीवार पर लटके हुए सर्प को तुलसीदास ने ध्यानपूर्वक नहीं देखा और सोचा कि वह रस्सी होगी। इसलिए वह मुख्य द्वार को खटखटा कर समय व्यर्थ करने के स्थान पर साँप को पकड़ कर दीवार पर चढ़ गए। जब उन्होंने खिड़की से कमरे में प्रवेश किया तब उनकी पत्नी ने उनसे पूछा कि उन्होंने नदी कैसे पार की और कैसे दीवार से ऊपर चढ़ कर आए। तब तुलसीदास ने बाहर उन वस्तुओं की ओर संकेत किया जिन्हें उन्होंने भूलवश लकड़ी का लट्ठा और रस्सी समझा था। उनकी पत्नी मृत शव और साँप को देखकर आश्चर्य चकित रह गयी। उसने कहा-"तुमने रक्त और मांस से बने शरीर को पाने की इच्छा की। यदि आपने भगवान को पाने की ऐसी उत्कंठा प्रकट की होती तब तुम्हें इस संसार में जन्म न लेना पड़ता।" पत्नी के शब्दों से तुलसीदास को इतना आघात पहुंचा कि उन्हें अपनी मूर्खता का आभास हो गया और उनमें संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न हुआ। वह घर गृहस्थी को त्याग कर भक्ति में तल्लीन होने के लिए निकल पड़े। उन्होंने स्वयं को भगवान की भक्ति में निमग्न किया। उन्होंने अपने मन और इन्द्रियों की उन इच्छाओं को जिन्होंने अतीत में उन्हें कष्ट दिया था उन्हें भगवान की भक्ति से तल्लीन कर दिया।
इस प्रकार भक्ति की प्रक्रिया में उन्होंने स्वयं को सिद्ध किया और महान कवि संत तुलसीदास कहलाए। बाद में उन्होंने रामचरित मानस की रचना की जिसमें उन्होंने इस प्रकार से वर्णन किया
कामीही नारि प्यारी जिमी लोभिहि प्रिय जिमी दाम
तिमि रघुनाथ निरन्तर प्रिय लागहू मोही राम
(रामचरितमानस)
"जिस प्रकार से कामी पुरुष को सुंदर स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को धन प्यारा लगता है उसी प्रकार से मेरा मन और इन्द्रियाँ भगवान राम की इच्छा करती रहें।