उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥10॥
उत्क्रामन्तम्-प्रस्थान करते हुए; स्थितम्–शरीर में रहते हुए; वा-अपि-अथवा; भुजजानम्-भोग करते हुए; वा–अथवा; गुण-अन्वितम्-प्रकृति के गुणों के अधीन; विमूढाः-अज्ञानी; न कभी नहीं; अनुपश्यन्ति–जान सकते हैं; पश्यन्ति–देख सकते हैं; ज्ञान-चक्षुषः-ज्ञान चक्षुओं से सम्पन्न।
Translation
BG 15.10: अज्ञानी आत्मा का अनुभव नहीं कर पाते जबकि यह शरीर में रहती है और इन्द्रिय विषयों का भोग करती है और न ही उन्हें इसके शरीर से प्रस्थान करने का बोध होता है लेकिन वे जिनके नेत्र ज्ञान से युक्त होते हैं वे इसे देख सकते हैं।
Commentary
यद्यपि आत्मा हमारे हृदय में रहती है और मन एवं इन्द्रियों की धारणाओं को ग्रहण करती है किन्तु इसे प्रत्येक मनुष्य जान नहीं पाता। इसका कारण यह है कि आत्मा भौतिक पदार्थ नहीं है और इसे भौतिक इन्द्रियों से देखा और स्पर्श नहीं किया जा सकता। वैज्ञानिक अपने उपकरणों द्वारा प्रयोगशाला में इसका पता नहीं लगा सकते इसलिए वे भूलवश निष्कर्ष निकालते हैं कि शरीर ही आत्मा है। यह एक मकैनिक द्वारा यह ज्ञात करने के प्रयास के समान है कि कार कैसे चलती है। वह पिछले पहियों की गति की ओर देखता है फिर त्वरक, अग्निशमन स्विच और स्टीरिंग व्हील का निरीक्षण करता है। वह इन सबको कार की गति के कारणों के रूप में चिह्नित करता है और यह अनुभव नहीं कर पाता कि कार चलाने का काम कार चालक करता है। समान रूप से आत्मा के अस्तित्व के ज्ञान के बिना शारीरिक क्रिया वैज्ञानिक यह निष्कर्ष निकालते हैं कि शरीर के सभी अंग एक साथ शरीर की चेतना के स्रोत हैं।
किन्तु जो अध्यात्मिक मार्ग पर चलते हैं वे ज्ञान चक्षुओं से यह देखते हैं कि आत्मा शरीर के अंगों को सक्रिय करती है। जब यह शरीर से प्रस्थान करती है तब भौतिक शरीर के विभिन्न अंग जैसे हृदय, मस्तिष्क, फेफड़े इत्यादि यहीं रह जाते हैं और शरीर में चेतना का कोई अस्तित्व नहीं रहता। चेतना आत्मा का लक्षण है जब तक आत्मा शरीर में उपस्थित रहती है तब तक चेतना शरीर में रहकर उसे जीवित रखती है और आत्मा द्वारा शरीर त्याग करने पर वह भी शरीर को छोड़ देती है। ज्ञान चक्षु से संपन्न ज्ञानी मनुष्य ही इसे देख सकते हैं। यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि अज्ञानी आत्मा की दिव्यता से अनभिज्ञ रहते हैं और भौतिक शरीर को आत्मा समझते हैं।