Bhagavad Gita: Chapter 8, Verse 23-26

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥23॥
अग्निर्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥24॥
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥25॥
शुक्लकृष्णे गती ोते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ॥26॥

यत्र-जहाँ; काले-समय; तु–निश्चित रूप से; अनावृत्तिम्-लौटकर न आना; आवृत्तिम्-लौटना; च-भी; एव-निश्चय ही; योगिनः-योगी; प्रयाता:-देह त्यागने वाले; यान्ति–प्राप्त करते हैं; तम्-उस; कालम्-काल को; यक्ष्यामि वर्णन करूँगा; भरत-ऋषभ-भरत कुल श्रेष्ठ। अग्रिः-अग्नि; ज्योति:-प्रकाश; अहः-दिन; शुक्ल:-शुक्लपक्ष; षट्-मासाः-छह महीने; उत्तर-अयणम्-जब सूर्य उत्तर दिशा की ओर रहता है; तत्र-वहाँ; प्रयाता:-देह त्यागने वाले; गच्छन्ति-जाते हैं; ब्रह्म-विदः-ब्रह्म को जानने वाले; जनाः-लोग। धूम:-धुआँ; रात्रि:-रात; तथा-और; कृष्ण:-चन्द्रमा का कृष्णपक्ष; षट्-मासा:-छह मास की अवधि; दक्षिण-अयणम्-जब सूर्य दक्षिण दिशा में रहता है; तत्र-वहाँ; चान्द्र-मसम् चन्द्रमा संबंधी; ज्योतिः-प्रकाश; योगी-योगी; प्राप्य–प्राप्त करके; निवर्तते वापस आता है। शुक्ल-प्रकाश; कृष्णे-अंधकार; गती-मार्ग; हि-निश्चय ही; एते-ये दोनों; जगतः-भौतिक जगत् का; शाश्वते नित्य; मते–मत से; एकया-एक के द्वारा; याति–जाता है; अनावृत्तिम्-न लौटने के लिए; अन्यथा अन्य के द्वारा; आवर्तते-लौटकर आ जाता है; पुनः-फिर से।

Translation

BG 8.23-26: हे भरत श्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें इस संसार से दूर विभिन्न मार्गों के संबंध में बताऊँगा। इनमें से एक मार्ग मुक्ति की ओर ले जाने वाला है और दूसरा पुनर्जन्म की ओर ले जाता है। वे जो परब्रह्म को जानते हैं और जो उन छः मासों में जब सूर्य उत्तर दिशा में रहता है, चन्द्रमा के शुक्ल पक्ष की रात्रि और दिन के शुभ लक्षण में देह का त्याग करते हैं, वे परम गंतव्य को प्राप्त करते हैं। वैदिक कर्मकाण्डों का पालन करने वाले साधक, चन्द्रमा के कृष्णपक्ष की रात्रि में धुएँ के समय जब सूर्य दक्षिणायन में रहता है, के छह माह के भीतर मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वे स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं। स्वर्ग के सुख भोगने के पश्चात वे पुनः धरती पर लौटकर आते हैं। प्रकाश और अंधकार के ये दोनों पक्ष संसार में सदा विद्यमान रहते हैं। प्रकाश का मार्ग मुक्ति की ओर तथा अंधकार का मार्ग पुनर्जन्म की ओर ले जाता है।

Commentary

इस श्लोक में श्रीकृष्ण के कथन अर्जुन द्वारा श्लोक 8.2 में पूछे गए प्रश्न–'हम मृत्यु के समय आप में कैसे एकीकृत हो सकते हैं?' से सम्बन्धित है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि संसार में दो मार्ग हैं-एक प्रकाश का मार्ग और दूसरा अंधकार का मार्ग है। यहाँ कुछ सीमा तक इन गूढ कथनों में हम प्रकाश और अंधकार के प्रसंग में आध्यात्मिक दृष्टिकोण अभिव्यक्त करने के लिए अद्भुत रूपक का प्रयोग करने का विचार कर सकते हैं। उत्तर सक्रांति के छः माह चन्द्रमा के शुक्ल पक्ष को रात्रि और दिन के शुभ लक्षण को प्रकाश के रूप में चित्रित किया गया है। प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है जबकि अंधकार अज्ञानता का प्रतीक है। दक्षिण संक्राति के छः माह चंद्रमा का कृष्ण पक्ष है और ये सब अंधकार के समानार्थक हैं। वे जिनकी चेतना भगवान में विकसित होती है और जो विषयासक्त कार्यों से विरक्त रहते हैं, वे प्रकाश अर्थात विवेक और ज्ञान के पथ का अनुसरण करते हुए दिवंगत होते हैं। क्योंकि वे भगवद्चेतना में स्थित हो जाते हैं इसलिए वे परमात्मा का धाम प्राप्त करते हैं और संसार के चक्र से मुक्त हो जाते हैं। किन्तु जिनकी चेतना संसार में आसक्त होती है, वे अंधकार (अज्ञानता) के मार्ग का अनुसरण करते हुए दिवंगत होते है। जीवन के दैहिक दृष्टिकोण में उलझने और भगवान से विमुख होने की भूल के कारण वे निरन्तर जीवन और मृत्यु के चक्र में घूमते रहते हैं। यदि उन्होंने वैदिक कर्मकाण्डों का पालन किया होता है तब वे उन्नत होकर अस्थायी रूप से स्वर्ग लोक को जाते हैं और बाद में पुनः पृथ्वी लोक पर लौट कर आते हैं। अब यह उनके कर्मों के अनुसार उन पर निर्भर करता है कि क्या वे प्रकाश के मार्ग या अंधकार के मार्ग की ओर अग्रसर होंगे।