यह अध्याय भगवान की शक्तियों के भौतिक और आध्यात्मिक आयामों के वर्णन के साथ आरम्भ होता है। श्रीकृष्ण व्यक्त करते हैं कि ये सब उन्हीं से प्रकट होते हैं और धागे में गुंथे मोतियों की भाँति उनमें स्थित रहते हैं। वे समूची सृष्टि के स्रोत हैं और ये सब उन्हीं में पुनः विलीन हो जाते हैं। उनकी प्राकृत शक्तिमाया पर विजय प्राप्त करना अत्यंत दुष्कर है लेकिन वे जो भगवान के शरणागत हो जाते हैं वे उनकी कृपा प्राप्त करते हैं और इस पर सरलता से विजय पा लेते हैं। आगे श्रीकृष्ण उनके शरणागत न होने वाले चार प्रकार के लोगों और उनकी भक्ति में तल्लीन रहने वाले चार प्रकार के लोगों का वर्णन करते हैं। वे अपने भक्तों में उन्हें अत्यंत प्रिय मानते हैं जो अपने मन और बुद्धि को उनमें विलय कर ज्ञान में स्थित होकर उनकी आराधना करते हैं। कुछ लोग जिनकी बुद्धि सांसारिक कामनाओं द्वारा हर ली जाती हैं वे स्वर्ग के देवताओं की शरण में जाते हैं किन्तु ये स्वर्ग के देवता केवल अस्थायी भौतिक सुख प्रदान कर सकते हैं और इन क्षणभंगुर सुखों को भी वे भगवान से शक्तियाँ प्राप्त होने पर ही प्रदान कर सकते हैं। इस प्रकार से भक्ति का उपयुक्त लक्ष्य स्वयं भगवान हैं। श्रीकृष्ण पुष्टि करते हैं कि वे परम सत्य और अंतिम गंतव्य या सिद्धि हैं और सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान जैसे शाश्वत दिव्य गुणों से सम्पन्न हैं। क्योंकि उनका वास्तविक स्वरूप उनकी दिव्य योगमाया शक्ति के आवरण द्वारा आच्छादित रहता है और इसलिए उनके अविनाशी दिव्य स्वरूप को सब नहीं जान सकते। यदि हम उनकी शरण ग्रहण करते हैं तब वे हमें उन्हें जानने का अपना दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं और उनको जानकर हम भी आत्मज्ञान और कार्मिक गतिविधियों के क्षेत्र का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।
Bhagavad Gita 7.1 View commentary »
परम प्रभु ने कहा-हे अर्जुन! अब यह सुनो कि भक्तियोग के अभ्यास द्वारा और मेरी शरण ग्रहण कर मन को केवल मुझमें अनुरक्त कर और संदेह मुक्त होकर तुम मुझे कैसे पूर्णतया जान सकते हो।
Bhagavad Gita 7.2 View commentary »
अब मैं तुम्हारे समक्ष इस ज्ञान और विज्ञान को पूर्णतः प्रकट करूँगा जिसको जान लेने पर इस संसार में तुम्हारे जानने के लिए और कुछ शेष नहीं रहेगा।
Bhagavad Gita 7.3 View commentary »
हजारों में से कोई एक मनुष्य सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है और सिद्धि प्राप्त करने वालों में से कोई एक विरला ही वास्तव में मुझे जान पाता है।
Bhagavad Gita 7.4 View commentary »
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार ये सब मेरी प्राकृत शक्ति के आठ तत्त्व हैं।
Bhagavad Gita 7.5 View commentary »
ये मेरी अपरा शक्तियाँ हैं किन्तु हे महाबाहु अर्जुन! इनसे अतिरिक्त मेरी परा शक्ति है। यह जीव शक्ति है जिसमें देहधारी आत्माएँ (जीवन रूप) सम्मिलित हैं जो इस संसार के जीवन का आधार हैं।
Bhagavad Gita 7.6 View commentary »
यह जान लो कि सभी प्राणी मेरी इन दो शक्तियों द्वारा उत्पन्न होते हैं। मैं सम्पूर्ण सृष्टि का मूल कारण हूँ और ये पुनः मुझमें विलीन हो जाती हैं।
Bhagavad Gita 7.7 View commentary »
हे अर्जुन! मुझसे श्रेष्ठ कोई नहीं है। सब कुछ मुझ पर उसी प्रकार से आश्रित है, जिस प्रकार से धागे में गुंथे मोती।
Bhagavad Gita 7.8 View commentary »
हे कुन्ती पुत्र! मैं ही जल का स्वाद हूँ, सूर्य और चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, मैं वैदिक मंत्रों में पवित्र अक्षर ओम हूँ, मैं ही अंतरिक्ष की ध्वनि और मनुष्यों में सामर्थ्य हूँ।
Bhagavad Gita 7.9 View commentary »
मैं पृथ्वी की शुद्ध सुगंध और अग्नि में दमक हूँ। मैं सभी प्राणियों में जीवन शक्ति हूँ और तपस्वियों का तप हूँ।
Bhagavad Gita 7.10 View commentary »
हे अर्जुन! यह समझो कि मैं सभी प्राणियों का आदि बीज हूँ। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ?
Bhagavad Gita 7.11 View commentary »
हे भरत श्रेष्ठ! मैं बलवान पुरुषों का काम और आसक्ति रहित बल हूँ। मैं वो काम हूँ जो धर्म या धर्म ग्रंथों की आज्ञाओं के विरुद्ध नहीं है।
Bhagavad Gita 7.12 View commentary »
तीन प्रकार के प्राकृतिक गुण-सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण मेरी शक्ति से ही प्रकट होते हैं। ये सब मुझमें हैं लेकिन मैं इनसे परे हूँ।
Bhagavad Gita 7.13 View commentary »
माया के तीन गुणों से मोहित इस संसार के लोग मेरे नित्य और अविनाशी स्वरूप को जान पाने में असमर्थ होते हैं।
Bhagavad Gita 7.14 View commentary »
प्रकति के तीन गुणों से युक्त मेरी दैवीय शक्ति माया से पार पाना अत्यंत कठिन है किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे इसे सरलता से पार कर जाते हैं।
Bhagavad Gita 7.15 View commentary »
चार प्रकार के लोग मेरी शरण ग्रहण नहीं करते-वे जो ज्ञान से वंचित हैं, वे जो अपनी निकृष्ट प्रवृति के कारण मुझे जानने में समर्थ होकर भी आलस्य के अधीन होकर मुझे जानने का प्रयास नहीं करते, जिनकी बुद्धि भ्रमित है और जो आसुरी प्रवृति के हैं।
Bhagavad Gita 7.16 View commentary »
हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पवित्र लोग मेरी भक्ति में लीन रहते हैं: आर्त अर्थात पीड़ित, ज्ञान की जिज्ञासा रखने वाले जिज्ञासु, संसार के स्वामित्व की अभिलाषा रखने वाले अर्थार्थी और जो परमज्ञान में स्थित ज्ञानी हैं।
Bhagavad Gita 7.17 View commentary »
इनमें से मैं उन्हें श्रेष्ठ मानता हूँ जो ज्ञान युक्त होकर मेरी आराधना करते हैं और दृढ़तापूर्वक अनन्य भाव से मेरे प्रति समर्पित होते हैं। मैं उन्हें बहुत प्रिय हूँ और वे मुझे अत्यंत प्रिय हैं।
Bhagavad Gita 7.18 View commentary »
वास्तव में वे सब जो मुझ पर समर्पित हैं, निःसंदेह महान हैं। लेकिन जो ज्ञानी हैं और स्थिर मन वाले हैं और जिन्होंने अपनी बुद्धि मुझमें विलय कर दी है और जो केवल मुझे ही परम लक्ष्य के रूप में देखते हैं, उन्हें मैं अपने समान ही मानता हूँ।
Bhagavad Gita 7.19 View commentary »
अनेक जन्मों की आध्यात्मिक साधना के पश्चात जिसे ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वह मुझे सबका उद्गम जानकर मेरी शरण ग्रहण करता है। ऐसी महान आत्मा वास्तव में अत्यन्त दुर्लभ होती है।
Bhagavad Gita 7.20 View commentary »
वे मनुष्य जिनकी बुद्धि भौतिक कामनाओं द्वारा भ्रमित हो गयी है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं। अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार वे देवताओं की पूजा करते हैं और इन देवताओं को संतुष्ट करने के लिए वे धार्मिक कर्मकाण्डों में संलग्न रहते हैं।
Bhagavad Gita 7.21 View commentary »
भक्त श्रद्धा के साथ स्वर्ग के देवता के जिस रूप की पूजा करना चाहता है, मैं ऐसे भक्त की श्रद्धा को उसी रूप में स्थिर करता हूँ।
Bhagavad Gita 7.22 View commentary »
श्रद्धायुक्त होकर ऐसे भक्त विशेष देवता की पूजा करते हैं और अपनी वांछित वस्तुएँ प्राप्त करते हैं किन्तु वास्तव में ये सब लाभ मेरे द्वारा ही प्रदान किए जाते हैं।
Bhagavad Gita 7.23 View commentary »
किन्तु ऐसे अल्पज्ञानी लोगों को प्राप्त होने वाले फल भी नश्वर होते हैं। जो लोग देवताओं की पूजा करते हैं, वे देव लोकों को जाते हैं जबकि मेरे भक्त मेरे लोक को प्राप्त करते हैं।
Bhagavad Gita 7.24 View commentary »
बुद्धिहीन मनुष्य सोचते हैं कि मैं परमेश्वर पहले निराकार था और अब मैंने यह साकार व्यक्तित्त्व धारण किया है, वे मेरे इस अविनाशी और सर्वोत्तम दिव्य स्वरूप की प्रकृत्ति को नहीं जान पाते।
Bhagavad Gita 7.25 View commentary »
मैं सभी के लिए प्रकट नहीं हूँ क्योंकि सब मेरी अंतरंग शक्ति 'योगमाया' द्वारा आच्छादित रहते हैं इसलिए मूर्ख और अज्ञानी लोग यह नहीं जानते कि मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ।
Bhagavad Gita 7.26 View commentary »
अर्जुन! मैं भूत, वर्तमान और भविष्य को जानता हूँ और मैं सभी प्राणियों को जानता हूँ लेकिन मुझे कोई नहीं जानता।
Bhagavad Gita 7.27 View commentary »
हे भरतवंशी! इच्छा तथा घृणा के द्वन्द मोह से उत्पन्न होते हैं। हे शत्रु विजेता! भौतिक जगत में समस्त जीव जन्म से इन्हीं से मोहग्रस्त होते हैं।
Bhagavad Gita 7.28 View commentary »
लेकिन पुण्य कर्मों में संलग्न रहने से जिन व्यक्तियों के पाप नष्ट हो जाते हैं, वे मोह के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाते हैं। ऐसे लोग दृढ़ संकल्प के साथ मेरी पूजा करते हैं।
Bhagavad Gita 7.29 View commentary »
जो मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे बुढ़ापे और मृत्यु से छुटकारा पाने की चेष्टा करते हैं, वे ब्रह्म, अपनी आत्मा और समस्त कार्मिक गतिविधियों के क्षेत्र को जान जाते हैं।
Bhagavad Gita 7.30 View commentary »
वे जो मुझे 'अधिभूत' प्रकृति के तत्त्व के सिद्धान्त और 'अधिदेव' देवतागण तथा 'अधियज्ञ' यज्ञों के नियामक के रूप में जानते हैं, ऐसी प्रबुद्ध आत्माएँ सदैव यहाँ तक कि अपनी मृत्यु के समय भी मेरी पूर्ण चेतना में लीन रहती हैं।