विभूति योग एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
सोऽविकल्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥7॥
एताम्-इन; विभूतिम्-वैभवों; योगम्-दिव्य शक्ति; च-भी; मम–मेरा; यः-जो कोई; वेत्ति–जानता है; तत्त्वतः-वास्तव में; सः-वे; अविकम्पेन निश्चित रूप से; योगेन-भक्ति से; युज्यते-एक हो जाता है; न कभी नहीं; अत्र-यहाँ; संशयः-शंका।
Translation
BG 10.7: जो मेरी महिमा और दिव्य शक्तियों को वास्तविक रूप से जान लेता है वह अविचल भक्तियोग के माध्यम से मुझमें एकीकृत हो जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।
Commentary
'विभूति' शब्द ब्रह्माण्ड में प्रकट भगवान की परम शक्तियों से संबंधित है। 'योगम्' शब्द इन अद्भुत शक्तियों के साथ भगवान के संबंध का उल्लेख करता है। श्रीकृष्ण इस श्लोक में स्पष्ट करते हैं कि जब हम परमात्मा के वैभव से परिचित होकर उनकी दिव्य एवं अनुपम महिमा को स्वीकार कर लेते हैं तब हम वास्तव में उनकी भक्ति में लीन होने में रुचि लेते हैं। भगवान की महानता का ज्ञान होने से भक्तों का प्रेम पोषित होता है और उनकी श्रद्धाभक्ति बढ़ती है। प्रेम और ज्ञान में परस्पर सीधा संबंध होता है जैसा कि निम्न उदाहरण से प्रकट होता है-
'यदि आपका मित्र आपको चमकते काले पत्थर की गोली दिखाता है तब तुम्हें इसके महत्त्व की जानकारी नहीं होती और इसलिए आपके भीतर उस काले पत्थर के प्रति किसी प्रकार का लगाव उत्पन्न नहीं होता। लेकिन जब आपका मित्र आपको बताता है कि यह 'शालीग्राम' है तथा इसे किसी सिद्ध संत ने उसे उपहार के रूप में दिया है। 'शालीग्राम' एक विशेष प्रकार का प्राचीन पत्थर है जो भगवान विष्णु का प्रतिरूप है जब आपको उस काले पत्थर की विशेषता का ज्ञान हो जाता है तब आपके लिए उस काले पत्थर का महत्त्व बढ़ जाता है। यदि फिर आपका मित्र आपको यह कहता है कि क्या आप जानते हैं कि पांच सौ वर्ष पूर्व महान संत स्वामी रामानन्द इस पत्थर का प्रयोग उपासना के लिए करते थे? जैसे ही आपको यह विशेष जानकारी प्राप्त होती है तब आपका उस काले पत्थर के प्रति श्रद्धा भाव और अधिक बढ़ जाता है। प्रत्येक समय पत्थर के संबंध में प्राप्त हो रही जानकारी से आपके भीतर उस काले पत्थर के प्रति श्रद्धा में निरन्तर वृद्धि होती रहती है। इसी प्रकार से भगवान का वास्तविक ज्ञान उनके प्रति हमारी श्रद्धा भक्ति बढ़ाता है। इस प्रकार भगवान की अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त अद्भुत शक्तियों का वर्णन करने के पश्चात श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे भक्त और पुण्य आत्माएँ जो इस ज्ञान में स्थित हो जाती हैं, वे आत्माएँ वास्तव में अविचल भक्ति के माध्यम से भगवान में एकनिष्ठ हो जाते हैं।'