पिछले अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन की भक्ति को पोषित और प्रगाढ करने के लिए अपनी दिव्य विभूतियों का वर्णन किया था। अध्याय के अन्त में वे स्पष्ट रूप से अपने असीम विश्व रूप का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि उसमें दिखाई देने वाले सभी सौंद्रर्य, ऐश्वर्य, तेज और शक्तियों को उनके तेज का स्फुलिंग मानो।
इस अध्याय में अर्जुन श्रीकृष्ण से प्रार्थना करता है कि वे उसे अपने विश्व रूप या सभी ब्रह्माण्डों में व्याप्त अपने अनंत ब्रह्माण्डीय विराट रूप का दर्शन कराएँ। तब श्रीकृष्ण उस पर कृपा करते हुए उसे अपनी दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं जिसे प्राप्त कर अर्जुन देवों के देव श्रीकृष्ण के शरीर में सम्पूर्ण सृष्टि का अवलोकन करता है। फिर वह भगवान के अद्भुत अनंत स्वरूप में अनगनित मुख, आँखें, भुजाएँ, उदर देखता है। उनके विराट रूप का कोई आदि और अन्त नहीं है और वह प्रत्येक दिशा में अपरिमित रूप से बढ़ रहा है। उस रूप का तेज आकाश में एक साथ चमकने वाले सौ सूर्यों के प्रकाश से अधिक है। उस विराट रूप को देखकर अर्जुन के शरीर के रोम कूप सिहरने लगे। वह देखता है कि भगवान के नियम के भय से तीनों लोक भय से कांप रहें हैं। उसने देखा कि स्वर्ग के सभी देवता भगवान में प्रवेश कर उनकी शरण ग्रहण कर रहे हैं और सिद्धजन पवित्र वैदिक मंत्रों, प्रार्थनाओं और स्रोतों का पाठ कर भगवान की स्तुति कर रहे हैं।
आगे अर्जुन कहता है कि वह धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को उनके सहयोगी राजाओं सहित उनके मुख में प्रवेश करते हुए उसी प्रकार से देख रहा है जैसे पतंगा तीव्र गति से अग्नि की ज्वाला में प्रवेश कर अपना विनाश करता है तब अर्जुन स्वीकार करता है कि भगवान के विश्व रूप को देखकर उसका हृदय भय से कांप रहा है और उसने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है। भयतीत अर्जुन श्रीकृष्ण से उनके इस भयानक रूप की वास्तविकता जानना चाहता है जो कि उनके उस रूप जैसा नहीं था तथा जिसे वह अब से पहले अपने गुरु और मित्र के रूप में जानता था। इसका उत्तर देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे काल के रूप में तीनों लोकों के संहारक हैं। वे घोषणा करते हैं कि कौरव पक्ष के महायोद्धा पहले ही उनके द्वारा मारे जा चुके हैं इसलिए अपनी विजय को सुनिश्चित मानते हुए उठो और युद्ध करो।
इसकी प्रतिक्रिया में अर्जुन अदम्य साहस और अतुल्य शक्ति से सम्पन्न भगवान के रूप में उनकी प्रशंसा करता है और पुनः उनकी वंदना करता है। वह कहता है कि यदि दीर्घकालीन मित्रता के दौरान श्रीकृष्ण को केवल मानव के रूप में देखने के कारण उपेक्षित भाव से भूलवशः उससे उनके प्रति कोई अपराध हो गया हो तो वे उसे क्षमा कर दें। वह उन्हें उस पर दया कर उन्हें एक बार पुनः अपना आनंदमयी भगवान का रूप दिखाने की प्रार्थना करता है।
श्रीकृष्ण उसकी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए पहले अपना चतुर्भुज नारायण रूप और तत्पश्चात अपना दो भुजाओं वाला मनोहारी पुरुषोत्तम रूप धारण करते हैं। वे अर्जुन को बताते हैं कि अर्जुन भगवान के जिस विश्वरूप को देख चुका है उसका दर्शन करना अत्यंत कठिन हैं। वेदों के अध्ययन करने से उनके साकार रूप को देखा नहीं जा सकता। उनके साकार रूप को न तो वेदों के अध्ययन द्वारा और न ही तपस्या, दान या अग्निहोत्र यज्ञों द्वारा देखा जा सकता है लेकिन अर्जुन, मैं जिस रूप में तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ उसे केवल विशुद्ध और अनन्य भक्ति से देखा जा सकता है और उसमें एकीकृत हुआ जा सकता है।
Bhagavad Gita 11.1 View commentary »
अर्जुन ने कहा! मुझ पर करुणा कर आप द्वारा प्रकट किए गए परम गुह्य आध्यात्मिक ज्ञान को सुनकर अब मेरा मोह दूर हो गया है।
Bhagavad Gita 11.2 View commentary »
मैने आपसे सभी प्राणियों की उत्पत्ति और संहार के संबंध में विस्तार से सुना है। हे कमल नयन! मैंने आपकी अविनाशी महिमा को भी जाना है।
Bhagavad Gita 11.3 View commentary »
हे परमेश्वर! तुम वास्तव में वही हो जिसका आपने मेरे समक्ष वर्णन किया है!, किन्तु हे परम पुरुषोत्तम! मैं आपके विराट रूप को देखने का इच्छुक हूँ।
Bhagavad Gita 11.4 View commentary »
सभी अप्रकट शक्ति के स्वामी हे भगवान! यदि आप यह सोचते हैं कि मैं इसे देखने में समर्थ हूँ तब मुझे अपना अविनाशी विराट स्वरूप दिखाने की कृपा करें।
Bhagavad Gita 11.5 View commentary »
परमेश्वर ने कहा-हे पार्थ! अब तुम मेरे सैकड़ों और हजारों अद्भुत दिव्य रूपों को विभिन्न आकारों और बहुरंगी रूपों में देखो।
Bhagavad Gita 11.6 View commentary »
हे भरतवंशी! लो अब आदिति के (बारह) पुत्रों, (आठ) वसुओं (ग्यारह) रुद्रों, (दो) अश्विनी कुमारों और उसी प्रकार से (उन्चास) मरुतों और पहले कभी न प्रकट हुए अन्य आश्चर्यों को मुझमें देखो।
Bhagavad Gita 11.7 View commentary »
हे अर्जुन! सभी चर और अचर सहित समस्त ब्रह्माण्डों को एक साथ मेरे विश्वरूप में देखो। इसके अतिरिक्त तुम कुछ और भी देखना चाहो तो वह सब मेरे विश्वव्यापी रूप में देखो।
Bhagavad Gita 11.8 View commentary »
परन्तु तुम अपनी आंखों से मेरे दिव्य ब्रह्माण्डीय स्वरूप को नहीं देख सकते हो। इसलिए मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूँ। अब मेरी दिव्य विभूतियों को देखो।
Bhagavad Gita 11.9 View commentary »
संजय ने कहा-हे राजन! इस प्रकार से कहकर योग के स्वामी महा योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिव्य विश्वरूप दिखाया।
Bhagavad Gita 11.10 – 11.11 View commentary »
अर्जुन ने भगवान के दिव्य विराट रूप में असंख्य मुख और आंखों को देखा। उनका रूप अनेक दैवीय आभूषण से अलंकृत था और कई प्रकार के दिव्य शस्त्रों को उठाए हुए था। उन्होंने उस शरीर पर अनेक मालाएँ और वस्त्र धारण किए हुए थे जिस पर कई प्रकार की दिव्य मधुर सुगन्धिया लगी थी। वह स्वयं को आश्चर्यमय और अनंत भगवान के रूप में प्रकट कर रहे थे जिनका मुख सर्वव्याप्त था।
Bhagavad Gita 11.12 View commentary »
यदि आकाश में हजारों सूर्य एक साथ उदय होते हैं तो भी उन सबका प्रकाश भगवान के दिव्य तेजस्वी रूप की समानता नहीं कर सकता।
Bhagavad Gita 11.13 View commentary »
अर्जुन ने देवों के देव के उस दिव्य शरीर में एक ही स्थान पर स्थित समस्त ब्रह्माण्डों को देखा।
Bhagavad Gita 11.14 View commentary »
विश्व रूप दर्शन योग तब आश्चर्य में डूबे अर्जुन के शरीर के रोंगटे खड़े हो गए और वह मस्तक को झुकाए भगवान के समक्ष हाथ जोड़कर इस प्रकार प्रार्थना करने लगा।
Bhagavad Gita 11.15 View commentary »
अर्जुन ने कहा-मैंने आपके शरीर में सभी देवताओं और विभिन्न प्रकार के जीवों को देखा। मैंने वहाँ कमल पर आसीन ब्रह्मा और शिव तथा सभी ऋषियों और स्वर्ग के सर्पो को देखा।
Bhagavad Gita 11.16 View commentary »
मैं सभी दिशाओं में अनगिनत भुजाएँ, उदर, मुँह और आँखों के साथ आपके सर्वत्र फैले हुए अनंतरूप को देखता हूँ। हे ब्रह्माण्ड के स्वामी! आपका रूप अपने आप में अनंत है, मुझे आप में कोई आरम्भ, मध्य और अंत नहीं दिखता।
Bhagavad Gita 11.17 View commentary »
विश्व रूप दर्शन योग मैं मुकुट से सुशोभित चक्र और गदा से सुसज्जित शस्त्रों के साथ सर्वत्र दीप्तिमान लोक के रूप में आपके रूप को देख रहा हूँ। इस चमचमाती अग्नि में आपके तेज को देख पाना कठिन है जो सभी दिशाओं से प्रस्फुटित होने वाले सूर्य के प्रकाश की भांति है।
Bhagavad Gita 11.18 View commentary »
मैं आपको परम अविनाशी मानता हूँ। आप ही धार्मिक ग्रंथों द्वारा ज्ञात होने वाले परम सत्य हो। आप समस्त सृष्टि के परम आधार हो और सनातन धर्म के नित्य पालक और रक्षक हो और अविनाशी परम प्रभु हो।
Bhagavad Gita 11.19 View commentary »
आप आदि, मध्य और अंत से रहित हैं और आपकी शक्तियों का कोई अंत नहीं है। सूर्य और चन्द्रमा आप के नेत्र हैं और अग्नि आपके मुख के तेज के समान है और मैं आपके तेज से समस्त ब्रह्माण्ड को जलते देख रहा हूँ।
Bhagavad Gita 11.20 View commentary »
हे सभी जीवों के परम स्वामी! स्वर्ग और पृथ्वी के बीच के स्थान और सभी दिशाओं के बीच आप अकेले ही व्याप्त हैं। मैंने देखा है कि आपके अद्भुत और भयानक रूप को देखकर तीनों लोक भय से काँप रहे हैं।
Bhagavad Gita 11.21 View commentary »
स्वर्ग के सभी देवता आप में प्रवेश होकर आपकी शरण ग्रहण कर रहे हैं और कुछ भय से हाथ जोड़कर आपकी स्तुति कर रहे हैं। महर्षि और सिद्धजन पवित्र स्रोतों का पाठ कर और अनेक प्रार्थनाओं के साथ आपकी स्तुति कर रहे हैं।
Bhagavad Gita 11.22 View commentary »
रुद्र, आदित्य, वसु, साध्यगण, विश्वदेव, दोनों अश्विनी कुमार, मरुत, पित्तर, गन्धर्व, यक्ष, असुर तथा सभी सिद्धजन आपको आश्चर्य से देख रहे हैं।
Bhagavad Gita 11.23 View commentary »
हे सर्वशक्तिमान भगवान! अनेक मुख, नेत्र, भुजा, जांघे, पाँव, पेट तथा भयानक दांतों सहित आपके विकराल रूप को देखकर समस्त लोक भय से त्रस्त है और उसी प्रकार से मैं भी।
Bhagavad Gita 11.24 View commentary »
हे विष्णु भगवान! आकाश को स्पर्श करते हुए बहु रंगों, दीप्तिमान, मुख फैलाए और चमकती हुई असंख्य आंखों से युक्त आपके रूप को देखकर मेरा हृदय भय से कांप रहा है और मैंने अपना सारा धैर्य और मानसिक संतुलन खो दिया है।
Bhagavad Gita 11.25 View commentary »
प्रलय के समय की प्रचण्ड अग्नि के सदृश तुम्हारे अनेक मुखों के विकराल दांतों को देखकर मैं भूल गया हूँ कि मैं कहाँ हूँ और मुझे कहाँ जाना है। हे देवेश! आप ब्रह्माण्ड के आश्रयदाता हैं कृपया मुझ पर करुणा करो।
Bhagavad Gita 11.26 – 11.27 View commentary »
मैं धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को उनके सहयोगी राजाओं और भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण तथा हमारे पक्ष के सेना नायकों सहित आपके विकराल मुख में प्रवेश करता देख रहा हूँ। इनमें से कुछ के सिरों को मैं आपके विकराल दांतों के बीच पिसता हुआ देख रहा हूँ।
Bhagavad Gita 11.28 – 11.29 View commentary »
जिस प्रकार से नदियों की कई लहरें समुद्र में प्रवेश करती हैं उसी प्रकार से ये सब महायोद्धा आपके धधकते मुख में प्रवेश कर रहे हैं। जिस प्रकार से पतंगा तीव्र गति से अग्नि में प्रवेश कर जलकर भस्म हो जाता है उसी प्रकार से ये सेनाएँ अपने विनाश के लिए तीव्र गति से आपके मुख में प्रवेश कर रही हैं।
Bhagavad Gita 11.30 View commentary »
तुम अपनी तीक्ष्ण जिह्वा से समस्त दिशाओं के जीव समूहों को चाट रहे हो और उन्हें अपने प्रज्जवलित मुखों में निगल रहे हो। हे विष्णु! आप अपने सर्वत्र फैले प्रचंड तेज की किरणों से समस्त ब्रह्माण्ड को भीषणता से झुलसा रहे हो।
Bhagavad Gita 11.31 View commentary »
हे देवेश! कृपया मुझे बताएं कि अति उग्र रूप में आप कौन हैं? मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कृपया मुझ पर करुणा करें। आप समस्त सृष्टियों से पूर्व आदि भगवान हैं। मैं आपको जानना चाहता हूँ और मैं आपकी प्रकृति और प्रयोजन को नहीं समझ पा रहा हूँ।
Bhagavad Gita 11.32 View commentary »
परम प्रभु ने कहा-“मैं प्रलय का मूलकारण और महाकाल हूँ जो जगत का संहार करने के लिए आता है। तुम्हारे युद्ध में भाग लेने के बिना भी युद्ध की व्यूह रचना में खड़े विरोधी पक्ष के योद्धा मारे जाएंगे।"
Bhagavad Gita 11.33 View commentary »
इसलिए उठो युद्ध करो और यश अर्जित करो। अपने शत्रुओं पर विजय पाकर समृद्ध राज्य का भोग करो। ये सब योद्धा पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे श्रेष्ठ धनुर्धर! तुम तो मेरे कार्य को सम्पन्न करने का केवल निमित्त मात्र हो।
Bhagavad Gita 11.34 View commentary »
द्रोणाचार्य, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण और अन्य महायोद्धा पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। इसलिए बिना विक्षुब्ध हुए इनका वध करो, केवल युद्ध करो और तुम अपने शत्रुओं पर विजय पाओगे।
Bhagavad Gita 11.35 View commentary »
संजय ने कहा- केशव के इन वचनों को सुनकर अर्जुन ने भय से कांपते हुए अपने दोनों हाथों को जोड़कर श्रीकृष्ण को नमस्कार किया और अवरुद्ध स्वर में भयभीत होकर श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा।
Bhagavad Gita 11.36 View commentary »
अर्जुन ने कहाः हे हृषीकेश! ये उचित है कि आपके नाम, श्रवण और यश गान से संसार हर्षित होता है। असुर गण आपसे भयभीत होकर सभी दिशाओं की ओर भागते रहते हैं और सिद्ध महात्माओं के समुदाय आपको नमस्कार करते हैं।
Bhagavad Gita 11.37 View commentary »
हे सर्वश्रेष्ठ! आप ब्रह्मा से श्रेष्ठ और आदि सृष्टा हो तब फिर वह आपको नमस्कार क्यों न करें? हे अनंत, हे देवेश, हे जगत के आश्रयदाता आप सभी कारणों के कारण और अविनाशी हैं। आप व्यक्त और अव्यक्त से परे अविनाशी सत्य हो।
Bhagavad Gita 11.38 View commentary »
आप आदि सर्वात्मा दिव्य सनातन स्वरूप हैं, आप इस ब्रह्माण्ड के परम आश्रय हैं। आप ही सर्वज्ञाता और जो कुछ भी जानने योग्य है वह सब आप ही हो। आप ही परम धाम हो। हे अनंत रूपों के स्वामी! केवल आप ही समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो।
Bhagavad Gita 11.39 View commentary »
आप वायु, यम, अग्नि, जल और चन्द्रमा के देवता हैं। आप ब्रह्मा के पिता और सभी जीवों के प्रपितामह हैं। अतः मैं आपको हजारों बार और बार-बार नमस्कार करता हूँ।
Bhagavad Gita 11.40 View commentary »
हे अनंत शक्तियों के स्वामीं। आपको आगे और पीछे और वास्तव में सभी ओर से नमस्कार है आप असीम पराक्रम और शक्ति के स्वामी हैं और सर्वव्यापी हैं। अतः आप सब कुछ हैं।
Bhagavad Gita 11.41 – 11.42 View commentary »
आपको अपना मित्र मानते हुए मैंने धृष्टतापूर्वक आपको हे कृष्ण, हे यादव, हे प्रिय मित्र कहकर संबोधित किया क्योंकि मुझे आपकी महिमा का ज्ञान नहीं था। उपेक्षित भाव से और प्रेमवश होकर यदि उपहास करते हुए मैंने कई बार खेलते हुए, विश्राम करते हुए, बैठते हुए, खाते हुए, अकेले में या अन्य लोगों के समक्ष आपका कभी अनादर किया हो तो उन सब अपराधों के लिए हे अचिन्त्य! मैं आपसे क्षमा याचना करता हूँ।
Bhagavad Gita 11.43 View commentary »
आप समस्त चर-अचर के स्वामी और समस्त ब्रह्माण्डों के जनक हैं। आप परम पूजनीय आध्यात्मिक गुरु हैं। हे अतुल्य शक्ति के स्वामी! जब समस्त तीनों लोकों में आपके समतुल्य कोई नहीं है तब आप से बढ़कर कोई कैसे हो सकता है।
Bhagavad Gita 11.44 View commentary »
इसलिए हे पूजनीय भगवान! मैं आपके समक्ष नतमस्तक होकर और साष्टांग प्रणाम करते हुए आपकी कृपा प्राप्त करने की याचना करता हूँ। जिस प्रकार पिता पुत्र के हठ को सहन करता है, मित्र इष्टता को और प्रियतम अपनी प्रेयसी के अपराध को क्षमा कर देता है उसी प्रकार से कृपा करके मुझे मेरे अपराधों के लिए क्षमा कर दो।
Bhagavad Gita 11.45 View commentary »
पहले कभी न देखे गए आपके विराट रूप का अवलोकन कर मैं अत्यधिक हर्षित हो रहा हूँ और साथ ही साथ मेरा मन भय से कांप रहा है। इसलिए हे देवेश, हे जगन्नाथ! कृपया मुझ पर दया करें और मुझे पुनः अपना आनन्दमयी स्वरूप दिखाएँ।
Bhagavad Gita 11.46 View commentary »
हे सहस्र बाहु! यद्यपि आप समस्त सृष्टि में अभिव्यक्त हैं किन्तु मैं तुम्हारे मुकुटधारी चक्र और गदा उठाए हुए चतुर्भुज नारायण रूप के दर्शन करना चाहता हूँ।
Bhagavad Gita 11.47 View commentary »
आनन्दमयी भगवान ने कहा-हे अर्जुन! तुम पर प्रसन्न होकर मैनें अपनी योगमाया शक्ति द्वारा तुम्हें अपना दीप्तिमान अनन्त और आदि विश्व रूप दिखाया। तुमसे पहले किसी ने मेरे इस विराट रूप को नहीं देखा।
Bhagavad Gita 11.48 View commentary »
हे कुरुश्रेष्ठ! न तो वेदों के अध्ययन से और न ही यज्ञ, कर्मकाण्डों, दान, पुण्य, यहाँ तक कि कठोर तप करने से भी किसी जीवित प्राणी ने मेरे विराटरूप को कभी देखा है जिसे तुम देख चुके हो।
Bhagavad Gita 11.49 View commentary »
मेरे भयानक रूप को देखकर तुम न तो भयभीत हो और न ही मोहित हो। भयमुक्त और प्रसन्नचित्त होकर मेरे पुरुषोत्तम रूप को देखो।
Bhagavad Gita 11.50 View commentary »
संजय ने कहाः ऐसा कहकर वासुदेव के करुणामय पुत्र ने पुनः अपना चतुर्भुज रूप प्रकट किया और फिर अपना दो भुजाओं वाला सुन्दर रूप प्रदर्शित कर भयभीत अर्जुन को सांत्वना दी।
Bhagavad Gita 11.51 View commentary »
अर्जुन ने कहा-हे जनार्दन! आपके दो भुजा वाले मनोहर मानव रूप को देखकर मुझ में आत्मसंयम लौट आया है और मेरा चित्त स्थिर होकर सामान्य अवस्था में आ गया है।
Bhagavad Gita 11.52 – 11.53 View commentary »
परम प्रभु ने कहा-मेरे जिस रूप का तुम अवलोकन कर रहे हो उसे देख पाना अति दुष्कर है। यहाँ तक कि स्वर्ग के देवताओं को भी इसका दर्शन करने की उत्कंठा होती है। मेरे इस रूप को न तो वेदों के अध्ययन, न ही तपस्या, दान और यज्ञों जैसे साधनों द्वारा देखा जा सकता है जैसाकि तुमने देखा है।
Bhagavad Gita 11.54 View commentary »
हे अर्जुन! मैं जिस रूप में तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ उसे केवल अनन्य भक्ति से जाना जा सकता है। हे शत्रुहंता! इस प्रकार मेरी दिव्य दृष्टि प्राप्त होने पर ही कोई वास्तव में मुझमें एकीकृत हो सकता है।
Bhagavad Gita 11.55 View commentary »
वे जो मेरे प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, जो मुझ पर ही भरोसा करते हैं, आसक्ति रहित रहते हैं और किसी भी प्राणी से द्वेष नहीं रखते। ऐसे भक्त निश्चित रूप से मुझे प्राप्त करते हैं।