श्रीभगवानुवाच।
त्रिविद्या भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥2॥
श्री भगवान् उवाच-भगवान ने कहा; त्रि-विद्या–तीन प्रकार की विद्या; भवति–होना; श्रद्धा-विश्वास; देहिनाम्-देहधारियों की; सा–किसमें; स्व-भाव-जा-जन्म की प्रकृति के अनुसार; सात्त्विकी-सत्वगुण; राजसी-रजोगुण; च-भी; एव–निश्चय ही; तामसी–तमोगुण; च-तथा; इति–इस प्रकार; ताम्-उसको; शृणु-सुनो।
Translation
BG 17.2: पुरुषोत्तम भगवान ने कहा-"प्रत्येक प्राणी स्वाभाविक रूप से श्रद्धा के साथ जन्म लेता है जो सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक तीन प्रकार की हो सकती है। अब इस संबंध में मुझसे सुनो।"
Commentary
कोई भी व्यक्ति श्रद्धा विहीन नहीं हो सकता क्योंकि यह मानव व्यक्तित्व का एक अविभाज्य स्वरूप है जिन व्यक्तियों की धर्मग्रन्थों में आस्था नहीं है वे व्यक्ति भी आस्थाहीन नहीं हैं क्योंकि उनकी आस्था अन्यत्र किसी दूसरी ओर होती है। ऐसा उनकी बुद्धि की तार्किक क्षमता अथवा उनकी इन्द्रियों के बोध अथवा उन सिद्धांतों पर आधारित हो सकता है जिन पर उन्होंने विश्वास करने का निर्णय लिया है। उदाहरण के के लिए जब लोग यह कहते हैं कि "मैं भगवान पर इसलिए विश्वास नहीं करता क्योंकि मैं उसे देख नहीं सकता।" उन्हें भगवान में विश्वास नहीं है किन्तु उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास है। अतः वे मानते हैं कि जब वे किसी वस्तु को देख नहीं सकते तब संभवतः उन्हें उसके अस्तित्व का बोध नहीं होता। यह भी एक प्रकार की आस्था है। कोई दूसरा कहता है-"मैं प्राचीन ग्रंथों की प्रामाणिकता में विश्वास नहीं रखता। इसके स्थान पर मैं आधुनिक विज्ञान के सिद्धांतों को स्वीकार करता हूँ।" यह भी एक प्रकार का विश्वास है क्योंकि हमने पिछली शताब्दियों में अनुभव किया है कि किस प्रकार विज्ञान के सिद्धांतों में परिवर्तन आया है और उन्हें पलट दिया गया है। यह संभव है कि हम वर्तमान में जिन वैज्ञानिक सिद्धांतों को वास्तविक मान रहे हैं, हो सकता है कि भविष्य में वे गलत सिद्ध हों। इन्हें सत्य मानना भी विश्वास की ओर आगे बढ़ना है।
भौतिक शास्त्र में नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर चार्ल्स एस. टाउन्स ने इसे बहुत ही सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है-"विज्ञान को भी विश्वास की आवश्यकता है, हम नहीं जानते कि हमारे तर्क ठीक हैं, मैं नहीं जानता कि क्या आप वहाँ पर हो, आप भी नहीं जानते कि मैं यहाँ पर हूँ। हम केवल इस सबकी कल्पना कर सकते हैं। मुझे विश्वास है कि विश्व वैसा ही है जैसा कि वह दिखाई देता है और मैं इस प्रकार से विश्वास करता हूँ कि आप वहाँ पर हैं। मैं इसे किसी मौलिक दृष्टिकोण से सिद्ध नहीं कर सकता। फिर भी मुझे कार्य संचालन के लिए एक निश्चित तंत्र को स्वीकार करना पड़ेगा। यह विचार कि 'धर्म ही आस्था है' तथा 'विज्ञान ही ज्ञान है' के संबंध में मेंरा यह मानना है कि यह बिल्कुल अनुचित है क्योंकि हम वैज्ञानिक बाह्य जगत के अस्तित्वों में तथा अपने तर्कों की मान्यता में विश्वास करते हैं। इस संबंध में हम अपने को सहज अनुभव करते हैं तथापि ये सभी विश्वास का प्रदर्शन है और हम इन्हें सिद्ध नहीं कर सकते। भले ही कोई भौतिक वैज्ञानिक, सामाजिक विचारक, आध्यात्मिक विचारक अथवा तत्त्वज्ञानी हो, वह ज्ञान की स्वीकृति में अपेक्षित विश्वास के लंघन की आवश्यकता से बच नहीं सकता।
अब श्रीकृष्ण उस कारण की व्याख्या करते है कि भिन्न-भिन्न प्रकार के लोग क्यों विभिन्न क्षेत्रों में अपनी आस्था रखते हैं।