भगवद्गीता का अंतिम अध्याय सबसे बड़ा है और इसमें कई विषयों को सम्मिलित किया गया है। अर्जुन संस्कृत में प्रायः प्रयुक्त होने वाले दो शब्दों संन्यास और त्याग के संबंध में प्रश्न पूछने के साथ संन्यास के विषय पर चर्चा प्रारम्भ करता है। दोनों शब्द एक ही मूल धातु के हैं जिसका अर्थ 'परित्याग करना' है। संन्यासी वह है जो गृहस्थ जीवन में भाग नहीं लेता और समाज को त्याग कर साधना का अभ्यास करता है। त्यागी वह है जो कर्म में संलग्न रहता है लेकिन कर्म-फल का भोग करने की इच्छा का त्याग करता है। (यही गीता की वाणी का मुख्य अभिप्राय है) श्रीकृष्ण दूसरे प्रकार के त्याग की संतुति करते हैं। वे परामर्श देते हैं कि यज्ञ, दान, तपस्या और कर्त्तव्य पालन संबंधी कार्यों का कभी त्याग नहीं करना चाहिए क्योंकि ये ज्ञानी को भी शुद्ध करते हैं। इनका संपादन केवल कर्त्तव्य पालन की दृष्टि से करना चाहिए क्योंकि इन कार्यों को कर्म फल की आसक्ति के बिना संपन्न करना आवश्यक होता है।
तत्पश्चात श्रीकृष्ण तीन कारकों के विस्तृत गहन विश्लेषण की ओर आते हैं जो कर्म, कर्म के तीन संघटक और कर्म फल में योगदान करने वाले पाँच कारकों को प्रेरित करते हैं। वे इनमें से प्रत्येक की तीन गुणों के अंतर्गत विवेचना करते हैं। वे कहते हैं कि जो अल्पज्ञानी है वे स्वयं को अपने कार्यों का कारण मानते हैं लेकिन विशुद्ध बुद्धि युक्त प्रबद्ध आत्माएँ न तो स्वयं को अपने कार्यों का कर्ता और न ही भोक्ता मानती हैं। अपने कर्मों के फलों से सदैव विरक्त रहने के कारण वे कार्मिक प्रतिक्रियाओं के बंधन में नहीं पड़ते। आगे इस अध्याय में यह अवगत कराया गया है कि लोगों के उद्देश्यों और कर्मों में भिन्नता क्यों पाई जाती है? तत्पश्चात इसमें प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म और कर्ता की श्रेणियों का वर्णन किया गया है। फिर आगे यह अध्याय बुद्धि, दृढ संकल्प और सुख के संबंध में समान विश्लेषण प्रस्तुत करता है। इसके बाद यह अध्याय उन लोगों का चित्रण करता है जिन्होंने आध्यात्मिक जीवन में पूर्णता की
अवस्था प्राप्त कर ली है और ब्रह्म की अनुभूति में लीन हो गए हैं। आगे इस अध्याय में यह कहा गया है कि ऐसे पूर्ण योगी भी भक्ति में तल्लीनता द्वारा अपनी पूर्णता का अनुभव करते हैं। इसलिए भगवान के दिव्य व्यक्तित्त्व के रहस्य को केवल मधुर भक्ति द्वारा जाना जा सकता है। इसके बाद श्रीकृष्ण अर्जुन को स्मरण कराते हैं कि भगवान सभी जीवों के हृदय में स्थित हैं
और उनके कर्मों के अनुसार वे उनकी गति को निर्देशित करते हैं। यदि हम उनका स्मरण करते हैं और अपने सभी कर्म उन्हें समर्पित करते हैं तथा उनका आश्रय लेकर उन्हें अपना लक्ष्य बनाते हैं तब उनकी कृपा से हम सभी प्रकार की कठिनाईयों को पार कर लेंगे। लेकिन यदि हम अपने अभिमान से प्रेरित होकर अपनी इच्छानुसार कर्म करते है तब हम सफलता प्राप्त नहीं कर पाएंगे।
अंत में श्रीकृष्ण यह प्रकट करते हैं कि सभी प्रकार की धार्मिकता का त्याग करना और केवल भगवान की भक्ति के साथ-साथ उनके समक्ष शरणागत होना ही अति गुह्यतम ज्ञान है। तथापि यह ज्ञान उन्हें नहीं प्रदान करना चाहिए जो आडम्बर-हीन और भक्त नहीं हैं, क्योंकि वे इसकी अनुचित व्याख्या करेंगे और इसका दुरूपयोग कर अनुत्तरदायिता से कर्मों का त्याग करेंगे। यदि हम यह गुह्य ज्ञान पात्र जीवात्मा को प्रदान करते है तब यह अति प्रेमायुक्त बन जाता है और भगवान को अति प्रसन्न करता है।
इसके बाद अर्जुन भगवान को सूचित करता है कि उसका मोह नष्ट हो गया है और वह उनकी आज्ञाओं का पालन करने के लिए तत्पर है। अंत में संजय जो नेत्रहीन राजा धृतराष्ट्र को युद्ध भूमि पर भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हो रहे संवादों को सुना रहा था, व्यक्त करता है कि वह इन संवादों को सुनकर इतना स्तंभित और आश्चर्य चकित है कि जैसे ही वह भगवान के पवित्र संवादों और भगवान के अति विशाल विश्व रूप का स्मरण करता है तब उसके शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। गहन कथन के साथ भगवद्गीता का समापन करते हुए वह कहता है कि विजय सदैव वहीं होती है जहाँ भगवान और उसके भक्त होते हैं और इस प्रकार से अच्छाई, प्रभुता और समृद्धि भी वहीं होगी क्योंकि परम सत्य का प्रकाश सदैव असत्य के अंधकार को परास्त कर देता है।
Bhagavad Gita 18.1 View commentary »
अर्जुन ने कहा-हे महाबाहु। मैं संन्यास और त्याग की प्रकृति के संबंध में जानना चाहता हूँ। हे केशिनिषूदन, हे हृषिकेश! मैं दोनों के बीच का भेद जानने का भी इच्छुक हूँ।
Bhagavad Gita 18.2 View commentary »
परम भगवान ने कहाः कामना से अभिप्रेरित कर्मों के परित्याग को विद्वान लोग 'संन्यास' कहते हैं और सभी कर्मों के फलों के त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते है।
Bhagavad Gita 18.3 View commentary »
कुछ मनीषी घोषित करते हैं कि समस्त प्रकार के कर्मों को दोषपूर्ण मानते हुए उन्हें त्याग देना चाहिए किन्तु अन्य विद्वान यह आग्रह करते हैं कि यज्ञ, दान, तथा तपस्या जैसे कर्मों का कभी त्याग नहीं करना चाहिए।
Bhagavad Gita 18.4 View commentary »
हे भरतश्रेष्ठ! अब त्याग के विषय में मेरा अंतिम निर्णय सुनो। हे मनुष्यों में सिंह! त्याग के लिए तीन प्रकार की श्रेणियों का वर्णन किया गया है।
Bhagavad Gita 18.5 View commentary »
यज्ञ, दान, तथा तपस्या पर आधारित कर्मों का कभी परित्याग नहीं करना चाहिए। इन्हें निश्चित रूप से सम्पन्न करना चाहिए। यज्ञ, दान तथा तपस्या वास्तव में महात्माओं को भी शुद्ध करते हैं।
Bhagavad Gita 18.6 View commentary »
ये सब कार्य आसक्ति और फल की कामना से रहित होकर संपन्न करने चाहिए। हे अर्जुन! यह मेरा स्पष्ट और अंतिम निर्णय है।
Bhagavad Gita 18.7 View commentary »
नियत कर्त्तव्यों को कभी त्यागना नहीं चाहिए। मोहवश होकर निश्चित कार्यों के त्याग को तमोगुणी कहा जाता है।
Bhagavad Gita 18.8 View commentary »
नियत कर्त्तव्यों को कष्टप्रद और शरीर को व्यथा देने का कारण समझकर किया गया त्याग रजोगुणी कहलाता है। ऐसा त्याग कभी लाभदायक और उन्नत करने वाला नहीं होता।
Bhagavad Gita 18.9 View commentary »
जब कोई कर्मों का निष्पादन कर्त्तव्य समझ कर और फल की आसक्ति से रहित होकर करता है तब उसका त्याग सत्वगुणी कहलाता है।
Bhagavad Gita 18.10 View commentary »
वे जो न तो अप्रिय कर्म को टालते हैं और न ही कर्म को प्रिय जानकर उसमें लिप्त होते हैं ऐसे मनुष्य वास्तव में त्यागी होते हैं। वे सात्विक गुणों से संपन्न होते है और कर्म की प्रकृति के संबंध में उनमें कोई संशय नहीं होता।
Bhagavad Gita 18.11 View commentary »
देहधारी जीवों के लिए पूर्ण रूप से कर्मों का परित्याग करना असंभव है लेकिन जो कर्मफलों का परित्याग करते हैं, वे वास्तव में त्यागी कहलाते हैं।
Bhagavad Gita 18.12 View commentary »
जो निजी पारितोषिक के प्रति आसक्त होते हैं उन्हें मृत्यु के पश्चात भी सुखद, दुखद और मिश्रित तीन प्रकार के कर्मफल प्राप्त होते हैं लेकिन जो अपने कर्मफलों का त्याग करते हैं उन्हें न तो इस लोक में और न ही मरणोपरांत ऐसे कर्मफल भोगने पड़ते हैं।
Bhagavad Gita 18.13 View commentary »
हे अर्जुन! अब मुझसे सांख्य दर्शन के सिद्धांत में उल्लिखित समस्त कर्मों को संपूर्ण करने हेतु पाँच कारकों को समझो जो यह बोध कराते हैं कि कर्मों की प्रतिक्रियाओं को कैसे रोका जाए।
Bhagavad Gita 18.14 View commentary »
शरीर, कर्ता, विभिन्न इन्द्रियाँ, अनेक प्रकार की चेष्टाएँ और विधि का विधान अर्थात भगवान-ये पाँच कर्म के कारक हैं।
Bhagavad Gita 18.15 – 18.16 View commentary »
शरीर, मन या वाणी से जो भी कार्य संपन्न किया जाता है भले ही वह उचित हो या अनुचित, उसके ये पाँच सहायक कारक हैं। वे जो इसे नहीं समझते और केवल आत्मा को ही कर्ता मानते हैं, अपनी दूषित बुद्धि के कारण वे वस्तुओं को उनके वास्तविक रूप में नहीं देख सकते।
Bhagavad Gita 18.17 View commentary »
जो कर्तापन के अहंकार से मुक्त होते हैं और जिनकी बुद्धि मोहग्रस्त नहीं है, यद्यपि वे जीवों को मारते हैं तथापि वे न तो जीवों को मारते हैं और न कर्मों के बंधन में पड़ते हैं।
Bhagavad Gita 18.18 View commentary »
ज्ञान, ज्ञान का विषय और ज्ञाता-ये कर्म को प्रेरित करने वाले तीन कारक हैं। कर्म के उपादान, स्वयं कर्म और कर्ता-ये कर्म के तीन घटक हैं।
Bhagavad Gita 18.19 View commentary »
सांख्य दर्शन में ज्ञान, कर्म और कर्ता की तीन श्रेणियों का उल्लेख किया गया है और तदनुसार प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार इनमें भेद का वर्णन भी किया गया है। इन्हें सुनो और मैं तुम्हें इनका भेद बताता हूँ।
Bhagavad Gita 18.20 View commentary »
जिस ज्ञान द्वारा कोई नाना प्रकार के सभी जीवों में एक अविभाजित अविनाशी सत्य को देखता है उसे सत्वगुण प्रकृति ज्ञान कहते हैं।
Bhagavad Gita 18.21 View commentary »
जिस ज्ञान द्वारा कोई मनुष्य भिन्न-भिन्न शरीरों में अनेक जीवित प्राणियों को पृथक-पृथक और असंबद्ध रूप में देखता है उसे राजसी माना जाता है।
Bhagavad Gita 18.22 View commentary »
वह ज्ञान जिसमें कोई मनुष्य ऐसी विखंडित अवधारणा में तल्लीन होता है जैसे कि वह संपूर्ण के सदृश हो और जो न तो किसी कारण और न ही सत्य पर आधारित है उसे तामसिक ज्ञान कहते हैं।
Bhagavad Gita 18.23 View commentary »
जो कर्म शास्त्रों के अनुमोदन के अनुसार है, राग और द्वेष की भावना से रहित और फल की कामना के बिना संपन्न किया जाता है, वह सत्वगुण प्रकृति का होता है।
Bhagavad Gita 18.24 View commentary »
जो कार्य स्वार्थ की पूर्ति से प्रेरित होकर मिथ्या, अभिमान और तनाव ग्रस्त होकर किए जाते हैं वे रजोगुणी प्रकृति के होते हैं।
Bhagavad Gita 18.25 View commentary »
जो कार्य मोहवश होकर और अपनी क्षमता का आंकलन, परिणामों, हानि और दूसरों की क्षति पर विचार किए बिना आरम्भ किए जाते हैं। वे तमोगुणी कहलाते हैं।
Bhagavad Gita 18.26 View commentary »
वह जो अहंकार और मोह से मुक्त होता है, उत्साह और दृढ़ निश्चय से युक्त होता है, ऐसे कर्ता को सत्वगुणी कहा जाता है।
Bhagavad Gita 18.27 View commentary »
जब कोई कर्ता कर्म-फल की लालसा, लोभ, हिंसक प्रवृत्ति, अशुद्धता, हर्ष एवं शोक से प्रेरित होकर कार्य करता है, उसे रजोगुणी कहा जाता है।
Bhagavad Gita 18.28 View commentary »
जो कर्ता अनुशासनहीन, अशिष्ट, हठी, कपटी, आलसी तथा निराश होता है और टाल मटोल करता है वह तमोगुणी कहलाता है।
Bhagavad Gita 18.29 View commentary »
हे अर्जुन! अब मैं प्रकृति के तीनों गुणों के अनुसार तुम्हें विभिन्न प्रकार की बुद्धि तथा वृति के विषय में विस्तार से बता रहा हूँ। तुम उसे सुनो।
Bhagavad Gita 18.30 View commentary »
हे पृथापुत्र! वह बुद्धि सत्वगुणी है जिसके द्वारा यह जाना जाता है कि क्या उचित है और क्या अनुचित है, क्या कर्त्तव्य है और क्या अकरणीय है, किससे भयभीत होना चाहिए और किससे भयभीत नहीं होना चाहिए, और क्या बंधन में डालने वाला है और क्या मुक्ति देने वाला है।
Bhagavad Gita 18.31 View commentary »
हे पार्थ! ऐसी बुद्धि राजसिक कहलाती है जो धर्म और अधर्म तथा उचित और अनुचित आचरण के बीच भेद करने में भ्रमित रहती है।
Bhagavad Gita 18.32 View commentary »
जो बुद्धि अंधकार से आच्छादित रहती है, अधर्म में धर्म, असत्य में सत्य की कल्पना करती है, वह तामसिक प्रकृति की होती है।
Bhagavad Gita 18.33 View commentary »
जो धृति योग से विकसित होगी और जो मन, प्राण शक्ति और इन्द्रियों की क्रियाओं को स्थिर रखती है उसे सात्विक धृति (संकल्प) कहते हैं।
Bhagavad Gita 18.34 View commentary »
वह द्यति जिसके द्वारा कोई मनुष्य आसक्ति और कर्म फल की इच्छा से कर्तव्य पालन करता है, सुख और धन प्राप्ति में लिप्त रहता है, वह राजसी धृति कहलाती है।
Bhagavad Gita 18.35 View commentary »
दर्बद्धिपूर्ण संकल्प जिसमें कोई स्वप्न देखने, भय, दुख, मोह, निराशा और कपट का त्याग नहीं करता उसे तमोगुणी घृति कहा जाता है।
Bhagavad Gita 18.36 View commentary »
हे अर्जुन! अब तुम मुझसे तीन प्रकार के सुखों के संबंध में सुनो जिनसे देहधारी आत्मा आनन्द प्राप्त करती है और सभी दुखों के अंत तक भी पहुँच सकती है।
Bhagavad Gita 18.37 View commentary »
जो आरम्भ में विष के समान लगता है लेकिन अंत में जिसका स्वाद अमृत के समान हो जाता है उसे सात्विक सुख कहते हैं। यह शुद्ध बुद्धि से उत्पन्न होता है जो आत्म ज्ञान में स्थित होती है।
Bhagavad Gita 18.38 View commentary »
उस सुख को रजोगुणी कहा जाता है जब यह इन्द्रियों द्वारा उसके विषयों के संपर्क से उत्पन्न होता है। ऐसा सुख आरम्भ में अमृत के सदृश लगता है और अंततः विष जैसा हो जाता है।
Bhagavad Gita 18.39 View commentary »
जो सुख आदि से अंत तक आत्मा की प्रकृति को आच्छादित करता है और जो निद्रा, आलस्य और असावधानी से उत्पन्न होता है वह तामसिक सुख कहलाता है।
Bhagavad Gita 18.40 View commentary »
इस भौतिक क्षेत्र में पृथ्वी और स्वर्ग के उच्च लोकों में रहने वाला कोई भी जीव प्रकृति के इन तीन गुणों के प्रभाव से मुक्त नहीं होता।
Bhagavad Gita 18.41 View commentary »
हे शत्रुहंता! ब्राह्मणों, श्रत्रियों, वैश्यों और शुद्रों के कर्तव्यों को इनके गुणों के अनुसार तथा प्रकृति के तीन गुणों के अनुरूप वितरित किया गया है, न कि इनके जन्म के अनुसार।
Bhagavad Gita 18.42 View commentary »
शान्ति, संयम, तपस्या, शुद्धता, धैर्य, सत्यनिष्ठा, ज्ञान, विवेक तथा परलोक में विश्वास-ये सब ब्राह्मणों के कार्य के स्वाभाविक गुण हैं।
Bhagavad Gita 18.43 View commentary »
शूरवीरता, शक्ति, धैर्य, रण कौशल, युद्ध से पलायन न करने का संकल्प, दान देने में उदारता नेतृत्व क्षमता-ये सब क्षत्रियों के कार्य के स्वाभाविक गुण हैं।
Bhagavad Gita 18.44 View commentary »
कृषि, गोपालन और दुग्ध उत्पादन तथा व्यापार, वैश्य गुणों से संपन्न लोगों के स्वाभाविक कार्य हैं। शुद्रता के गुण से युक्त लोगों के श्रम और सेवा स्वाभाविक कर्म हैं।
Bhagavad Gita 18.45 View commentary »
अपने जन्मजात गुणों से उत्पन्न अपने कर्तव्यों का पालन करने से मनुष्य पूर्णता प्राप्त कर सकता है। अब मुझसे सुनो कि कोई निर्धारित कर्तव्यों का पालन करते हुए कैसे पूर्णता प्राप्त करता है।
Bhagavad Gita 18.46 View commentary »
अपनी स्वाभाविक वृत्ति का निर्वहन करते हुए उस सृजक भगवान की उपासना करो जिससे सभी जीव अस्तित्त्व में आते हैं और जिसके द्वारा सारा ब्रह्माण्ड प्रकट होता है। इस प्रकार से अपने कर्मों को सम्पन्न करते हुए मनुष्य सरलता से पूर्णता प्राप्त कर सकता है।
Bhagavad Gita 18.47 View commentary »
अपने धर्म का पालन त्रुटिपूर्ण ढंग से करना अन्य के कार्यों को उपयुक्त ढंग से करने की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है। अपने स्वाभाविक कर्तव्यों का पालन करने से मनुष्य पाप अर्जित नहीं करता।
Bhagavad Gita 18.48 View commentary »
किसी को भी अपनी प्रकृति से उत्पन्न कर्त्तव्यों का परित्याग नहीं करना चाहिए चाहे कोई उनमें दोष भी क्यों न देखता हो। हे कुन्ती पुत्र! वास्तव में सभी प्रकार के उद्योग कुछ न कुछ बुराई से आवृत रहते हैं जैसे आग धुंए से ढकी रहती है।
Bhagavad Gita 18.49 View commentary »
वे जिनकी बुद्धि सदैव प्रत्येक स्थान पर अनासक्त रहती है, जिन्होंने अपने मन को वश में कर लिया है जो वैराग्य के अभ्यास द्वारा कामनाओं से मुक्त हो जाते हैं, वे कर्म से मुक्ति की पूर्ण सिद्धि प्राप्त करते हैं।
Bhagavad Gita 18.50 View commentary »
हे अर्जुन! अब मुझसे संक्षेप में सुनो और मैं तुम्हें समझाऊंगा कि जो सिद्धि प्राप्त कर चुका है वह भी दृढ़ता से दिव्य ज्ञान में स्थित होकर कैसे ब्रह्म को भी पा सकता है।
Bhagavad Gita 18.51 – 18.53 View commentary »
कोई भी मनुष्य ब्रह्म को पाने की पात्रता प्राप्त कर सकता है जब वह विशुद्ध बुद्धि और दृढ़ता से इन्द्रियों को संयत रखता है, शब्द और अन्य इन्द्रिय विषयों का परित्याग करता है, राग और द्वेष को अपने से अलग कर लेता है। ऐसा व्यक्ति जो एकांत वास करता है, अल्प भोजन करता है, शरीर मन और वाणी पर नियंत्रण रखता है, सदैव ध्यान में लीन रहता है, वैराग्य का अभ्यास करता है, अहंकार, अहिंसा, अभिमान, कामनाओं, संपत्ति के स्वामित्व और स्वार्थ से मुक्त रहता है और जो शांति में स्थित है वह ब्रह्म के साथ एकरस होने का अधिकारी है।
Bhagavad Gita 18.54 View commentary »
परम ब्रह्म की अनुभूति में स्थित मनुष्य मानसिक शांति प्राप्त करता है, वह न तो शोक करता है और न ही कोई कामना करता है। क्योंकि वह सभी के प्रति समभाव रखता है, ऐसा परम योगी मेरी भक्ति को प्राप्त करता है।
Bhagavad Gita 18.55 View commentary »
मेरी प्रेममयी भक्ति से कोई मुझे सत्य के रूप में जान पाता है। तब यथावत सत्य के रूप में मुझे जानकर मेरा भक्त मेरे पूर्ण चेतन स्वरूप को प्राप्त करता है।
Bhagavad Gita 18.56 View commentary »
यदि मेरे भक्त सभी प्रकार के कार्यों को करते हुए मेरी पूर्ण शरण ग्रहण करते हैं। तब वे मेरी कृपा से मेरा नित्य एवं अविनाशी धाम प्राप्त करते हैं।
Bhagavad Gita 18.57 View commentary »
अपने सभी कर्म मुझे समर्पित करो और मुझे ही अपना लक्ष्य मानो, बुद्धियोग का आश्रय लेकर अपनी चेतना को सदैव मुझमें लीन रखो।
Bhagavad Gita 18.58 View commentary »
यदि तुम सदैव मेरा स्मरण करते हो तब मेरी कृपा से तुम सभी कठिनाईयों और बाधाओं को पार कर पाओगे। यदि तुम अभिमान के कारण मेरे उपदेश को नहीं सुनोगे तब तुम्हारा विनाश हो जाएगा।
Bhagavad Gita 18.59 View commentary »
यदि तुम अहंकार से प्रेरित होकर सोचते हो कि “मैं युद्ध नहीं लडूंगां' तुम्हारा निर्णय निरर्थक हो जाएगा। तुम्हारा स्वाभाविक क्षत्रिय धर्म तुम्हें युद्ध लड़ने के लिए विवश करेगा।
Bhagavad Gita 18.60 View commentary »
हे अर्जुन! मोहवश जिस कर्म को तुम नहीं करना चाहते उसे तुम अपनी प्राकृतिक शक्ति से उत्पन्न प्रवृत्ति से बाध्य होकर करोगे।
Bhagavad Gita 18.61 View commentary »
हे अर्जुन! परमात्मा सभी जीवों के हृदय में निवास करता है। उनके कर्मों के अनुसार वह भटकती आत्माओं को निर्देशित करता है जो भौतिक शक्ति से निर्मित यंत्र पर सवार होती है।
Bhagavad Gita 18.62 View commentary »
हे भारत! अपने पूर्ण अस्तित्त्व के साथ पूर्ण रूप से केवल उसकी शरण ग्रहण करो। उसकी कृपा से तुम पूर्ण शांति और उसके नित्यधाम को प्राप्त करोगे।
Bhagavad Gita 18.63 View commentary »
इस प्रकार से मैंने तुम्हे यह ज्ञान समझाया जो सभी गुह्य से गुह्यतर है। इस पर गहनता के साथ विचार करो और फिर तुम जो चाहो वैसा करो।
Bhagavad Gita 18.64 View commentary »
पुनः मेरा परम उपदेश सुनो जो सबसे श्रेष्ठ गुह्य ज्ञान है। मैं इसे तुम्हारे लाभ के लिए प्रकट कर रहा हूँ क्योंकि तुम मेरे प्रिय मित्र हो।
Bhagavad Gita 18.65 View commentary »
सदा मेरा चिंतन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी अराधना करो, मुझे प्रणाम करो, ऐसा करके तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें ऐसा वचन देता हूँ क्योंकि तुम मेरे अतिशय मित्र हो।
Bhagavad Gita 18.66 View commentary »
सभी प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और केवल मेरी शरण ग्रहण करो। मैं तुम्हें समस्त पाप कर्मों की प्रतिक्रियाओं से मुक्त कर दूंगा, डरो मत।
Bhagavad Gita 18.67 View commentary »
यह उपदेश उन्हें कभी नहीं सुनाना चाहिए जो न तो संयमी है और न ही उन्हें जो भक्त नहीं हैं। इसे उन्हें भी नहीं सुनाना चाहिए जो आध्यात्मिक विषयों को सुनने के इच्छुक नहीं हैं और विशेष रूप से उन्हें भी नहीं सुनाना चाहिए जो मेरे प्रति द्वेष रखते हैं।
Bhagavad Gita 18.68 View commentary »
वे जो इस अति गुह्य ज्ञान को मेरे भक्तो को सिखाते हैं, वे अति प्रिय कार्य करते हैं। वे निःसंदेह मेरे धाम में आएंगे।
Bhagavad Gita 18.69 View commentary »
उनकी अपेक्षा कोई भी मनुष्य उनसे अधिक मेरी प्रेमपूर्वक सेवा नहीं करता और इस पृथ्वी पर मुझे उनसे प्रिय न तो कोई है और न ही होगा।
Bhagavad Gita 18.70 View commentary »
और मैं यह घोषणा करता हूँ कि जो हमारे पवित्र संवाद का अध्ययन करते हैं वे ज्ञान के समर्पण द्वारा अपनी बुद्धि के साथ मेरी पूजा करेंगे, ऐसा मेरा मत है।
Bhagavad Gita 18.71 View commentary »
वे जो श्रद्धायुक्त तथा द्वेष रहित होकर केवल इस ज्ञान को सुनते हैं वे पापों से मुक्त हो जाते हैं और मेरे पवित्र लोकों को पाते हैं जहाँ पुण्य आत्माएं निवास करती हैं।
Bhagavad Gita 18.72 View commentary »
हे पार्थ! क्या तुमने एकाग्रचित्त होकर मुझे सुना? हे धनंजय! क्या तुम्हारा अज्ञान और मोह नष्ट हुआ?
Bhagavad Gita 18.73 View commentary »
अर्जुन ने कहाः हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है। अब मैं ज्ञान में स्थित हूँ। मैं संशय से मुक्त हूँ और मैं आपकी आज्ञाओं के अनुसार कर्म करूंगा।
Bhagavad Gita 18.74 View commentary »
संजय ने कहाः इस प्रकार से मैंने वासुदेव पुत्र श्रीकृष्ण और उदारचित्त पृथा पुत्र अर्जुन के बीच अद्भुत संवाद सुना। यह इतना रोमांचकारी संदेश है कि इससे मेरे शरीर के रोंगटे खड़े हो गए हैं।
Bhagavad Gita 18.75 View commentary »
वेदव्यास की कृपा से मैंने इस परम गुह्य योग को साक्षात योगेश्वर श्रीकृष्ण से सुना।
Bhagavad Gita 18.76 View commentary »
हे राजन! जब-जब मैं परमेश्वर श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुए इस चकित कर देने वाले अद्भुत संवाद का स्मरण करता हूँ तब-तब मैं पुनः पुनः हर्षित होता हूँ।
Bhagavad Gita 18.77 View commentary »
भगवान श्रीकृष्ण के अति विस्मयकारी विश्व रूप का स्मरण कर मैं अति चकित और बार-बार हर्ष से रोमांचित हो रहा हूँ।
Bhagavad Gita 18.78 View commentary »
जहाँ योग के स्वामी श्रीकृष्ण और श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन हैं वहाँ निश्चित रूप से अनन्त ऐश्वर्य, विजय, समृद्धि और नीति होती है, ऐसा मेरा निश्चित मत है।