चौदहवें अध्याय में श्रीकष्ण ने प्राकतिक शक्ति के तीन गुणों की व्याख्या की थी और यह भी समझाया था कि किस प्रकार से ये मनुष्यों पर प्रभाव डालते हैं। इस सत्रहवें अध्याय में श्रीकृष्ण विस्तारपूर्वक गुणों के प्रभाव के संबंध में बताते हैं। सर्वप्रथम वह श्रद्धा के विषय पर चर्चा करते हैं और यह बताते हैं कि कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो श्रद्धा विहीन हो क्योंकि यह मानवीय प्रकृति का एक अविभाज्य स्वरूप है लेकिन मन की प्रकृति के अनुसार व्यक्तियों की श्रद्धा सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक गुणों के अनुरूप होती है। उनकी श्रद्धा की प्रकृति ही उनकी जीवन शैली का निर्धारण करती है। लोग अपनी रूचि के अनुसार ही अपने भोजन का चयन करते हैं।
श्रीकृष्ण भोजन को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत करते हैं तथा प्रत्येक भोजन के हमारे स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव की चर्चा करते हैं। तत्पश्चात वह यज्ञ के विषय पर आते हैं और यह बताते हैं कि कैसे प्रकृति के तीन गुणों में से प्रत्येक में यज्ञ किस प्रकार विभिन्न रूप से सम्पन्न होता है। इस अध्याय में आगे तपस्या के विषय में बताया गया है तथा शरीर, वाणी एवं मन के तप की व्याख्या की गई है। तपस्याओं की श्रेणी में प्रत्येक तपस्या का स्वरूप सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण के प्रभाव के कारण भिन्न होता है। तत्पश्चात दान पर चर्चा की गई है तथा इसके तीन विभागों का वर्णन किया गया है।
अंततः श्रीकृष्ण तीन गुणों से भी आगे बढ़ते हैं तथा “ओम-तत्-सत्" शब्दों की प्रासंगिकता तथा अर्थ के विषय पर प्रकाश डालते हैं जो परम सत्य के विभिन्न रूपों के प्रतीक हैं। 'ओउम' शब्दांश ईश्वर के निराकार रूप की अभिव्यक्ति है। 'तत्' शब्दांश का उच्चारण, परमपिता परमात्मा को अर्पित की जाने वाली क्रियाओं तथा वैदिक रीतियों के लिए किया जाता है, 'सत्' शब्दांश का तात्पर्य सनातन भगवान तथा धर्माचरण से है। एक साथ प्रयोग करने पर ये अलौकिकता की अवधारणा की ओर ले जाते हैं। इस अध्याय का अंत इस बात पर बल देते हुए होता है कि यदि यज्ञ, तप और दान धर्मग्रन्थों के विधि-निषेधों की उपेक्षा करते हुए किए जाते हैं तब ये सभी कृत्य निरर्थक सिद्ध होते हैं।
Bhagavad Gita 17.1 View commentary »
अर्जुन ने कहा-हे कृष्ण! उन लोगों की स्थिति क्या होती है जो धर्मग्रन्थों की आज्ञाओं की उपेक्षा करते हैं किन्तु फिर भी श्रद्धा के साथ पूजा करते हैं? क्या उनकी श्रद्धा, सत्वगुणी, रजोगुणी अथवा तमोगुणी होती है?
Bhagavad Gita 17.2 View commentary »
पुरुषोत्तम भगवान ने कहा-"प्रत्येक प्राणी स्वाभाविक रूप से श्रद्धा के साथ जन्म लेता है जो सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक तीन प्रकार की हो सकती है। अब इस संबंध में मुझसे सुनो।"
Bhagavad Gita 17.3 View commentary »
सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके मन की प्रकृति के अनुरूप होती है। सभी लोगों में श्रद्धा होती है चाहे उनकी श्रद्धी की प्रकृति कैसी भी हो। यह वैसी होती है जो वे वास्तव में है।
Bhagavad Gita 17.4 View commentary »
सत्वगुण वाले स्वर्ग के देवताओं की पूजा करते हैं, रजोगुण वाले यक्षों तथा राक्षसों की पूजा करते हैं, तमोगुण वाले भूतों और प्रेतात्माओं की पूजा करते हैं।
Bhagavad Gita 17.5 – 17.6 View commentary »
कुछ लोग अहंकार और दंभ से अभिप्रेरित होकर धर्मग्रंथों की आज्ञाओं के विरुद्ध कठोर तपस्या करते हैं। कामना और आसक्ति से प्रेरित होकर वे न केवल अपने शरीर के अंगों को कष्ट देते हैं बल्कि मुझे, जो उनके शरीर में परमात्मा के रूप में स्थित रहता हूँ, को भी कष्ट पहुँचाते हैं। ऐसे मूर्ख लोगों को पैशाचिक प्रवृति वाला कहा जाता है।
Bhagavad Gita 17.7 View commentary »
लोग अपनी रूचि के अनुसार भोजन पसंद करते हैं इसी प्रकार से उनकी ऐसी रूचि यज्ञ, तपस्या तथा दान के संबंध में भी सत्य है। अब मुझसे इनके भेदों के संबंध में सुनो।
Bhagavad Gita 17.8 View commentary »
सत्वगुण की प्रकृति वाले लोग ऐसा भोजन पसंद करते हैं जिससे आयु, सद्गुणों, शक्ति, स्वास्थ्य, प्रसन्नता तथा संतोष में वृद्धि होती है। ऐसे खाद्य पदार्थ रसीले, सरस, पौष्टिक तथा प्राकृतिक रूप से स्वादिष्ट होते हैं।
Bhagavad Gita 17.9 View commentary »
अत्याधिक कड़वे, खट्टे, नमकीन, गर्म, तीखे, शुष्क तथा मिर्च युक्त दाहकारक व्यंजन रजो गुणी व्यक्तियों को प्रिय लगते हैं ऐसे भोज्य पदार्थों के सेवन से पीड़ा, दुख तथा रोग उत्पन्न होते हैं।
Bhagavad Gita 17.10 View commentary »
अधिक पके हुए, बासी, सड़े हुए, प्रदूषित तथा अशुद्ध प्रकार के भोजन तमोगुणी व्यक्तियों के प्रिय भोजन हैं।
Bhagavad Gita 17.11 View commentary »
धर्मशास्त्रों की आज्ञाओं के अनुसार पारितोषिक की अपेक्षा किए बिना और मन की दृढ़ता के साथ कर्त्तव्य समझते हुए किया गया यज्ञ सत्वगुणी प्रकृति का है।
Bhagavad Gita 17.12 View commentary »
हे श्रेष्ठ भरतवंशी! जो यज्ञ भौतिक लाभ अथवा आडम्बरपूर्ण उद्देश्य के साथ किया जाता है उसे रजोगुणी श्रेणी का यज्ञ समझो।
Bhagavad Gita 17.13 View commentary »
श्रद्धा विहीन होकर तथा धर्मग्रन्थों की आज्ञाओं के विपरीत किया गया यज्ञ जिसमें भोजन अर्पित न किया गया हो, मंत्रोच्चारण न किए गए हों तथा दान न दिया गया हो, ऐसे यज्ञ की प्रकृति तमोगुणी होती है।
Bhagavad Gita 17.14 View commentary »
परमपिता परमात्मा, ब्राह्मणों, आध्यात्मिक गुरु, बुद्धिमान तथा श्रेष्ठ सन्तजनों की पूजा यदि पवित्रता, सादगी, ब्रह्मचर्य तथा अहिंसा के पालन के साथ की जाती है तब इसे शरीर की तपस्या कहा जाता है।
Bhagavad Gita 17.15 View commentary »
ऐसे शब्द जो दुख का कारण नहीं बनते, सच्चे, अहानिकर तथा हितकारी होते हैं। उसी प्रकार से वैदिक ग्रन्थों के नियमित अनुवाचन को वाणी का तप कहा गया है।
Bhagavad Gita 17.16 View commentary »
विचारों की शुद्धता, विनम्रता, मौन, आत्म-नियन्त्रण तथा उद्देश्य की निर्मलता इन सबको मन के तप के रूप में घोषित किया गया है।
Bhagavad Gita 17.17 View commentary »
जब धर्मनिष्ठ व्यक्ति उत्कृष्ट श्रद्धा के साथ भौतिक पदार्थों की लालसा के बिना तीन प्रकार की तपस्याएँ करते हैं तब इन्हें सत्वगुणी तपस्याओं के रूप में निर्दिष्ट किया जाता है।
Bhagavad Gita 17.18 View commentary »
जब किसी तपस्या को मान-सम्मान प्राप्त करने और आराधना कराने के लिए दंभपूर्वक सम्पन्न किया जाता है तब यह राजसी कहलाती है। इससे प्राप्त होने वाले लाभ अस्थायी तथा क्षणभंगुर होते हैं।
Bhagavad Gita 17.19 View commentary »
वह तप जो ऐसे व्यक्तियों द्वारा किया जाता है जो भ्रमित विचारों वाले हैं तथा जिसमें स्वयं को यातना देना तथा दूसरों का अनिष्ट करना सम्मिलित हो, उसे तमोगुणी कहा जाता है।
Bhagavad Gita 17.20 View commentary »
जो दान बिना प्रतिफल की कामना से यथोचित समय और स्थान में किसी सुपात्र को दिया जाता है वह सात्विक दान माना जाता है।
Bhagavad Gita 17.21 View commentary »
लेकिन अनिच्छापूर्वक अथवा फल प्राप्त करने की अपेक्षा के साथ दिए गये दान को रजोगुणी कहा गया है।
Bhagavad Gita 17.22 View commentary »
ऐसा दान जो अपवित्र स्थान तथा अनुचित समय पर कुपात्र व्यक्तियों को या बिना आदर भाव के अथवा अवमानना के साथ दिया जाता है, उसे तमोगुणी की प्रकृति का दान माना जाता है।
Bhagavad Gita 17.23 View commentary »
सृष्टि के आरंभ से 'ॐ-तत्-सत्' शब्दों को सर्वोच्च परम सत्य की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति माना है। इन्हीं में से पुरोहित (ब्राह्मण) शास्त्र तथा यज्ञ शब्द की उत्पत्ति हुई है।
Bhagavad Gita 17.24 View commentary »
इसलिए यज्ञ कर्म करना, दान देना और तपस्या जैसे कार्यों का शुभारम्भ वेदों के व्याख्याता वैदिक विधानों के निर्देशानुसार 'ओम' का उच्चारण करते हुए हैं।
Bhagavad Gita 17.25 View commentary »
ऐसे व्यक्ति जो किसी फल की कामना नहीं करते किन्तु भौतिक उलझनों से मुक्त रहना चाहते हैं वे तप, यज्ञ तथा दान जैसे कार्य करते समय 'तत्' शब्द का उच्चारण करते हैं।
Bhagavad Gita 17.26 – 17.27 View commentary »
“सत् शब्द का अर्थ शाश्वत और साधुता है। हे अर्जुन! इसका प्रयोग शुभ कर्मों को सम्पन्न करने के लिए किया जाता है। तप, यज्ञ तथा दान जैसे कार्यों को सम्पन्न करने में प्रतिष्ठापित होने के कारण इसे 'सत्' शब्द द्वारा वर्णित किया जाता है। अतः ऐसे किसी भी उद्देश्य के लिए किए जाने वाले कार्य के लिए 'सत्' नाम दिया गया है।
Bhagavad Gita 17.28 View commentary »
हे पृथा पुत्र! जो भी यज्ञकर्म या तप बिना श्रद्धा के किए जाते हैं वे 'असत्' कहलाते है। ये इस लोक और परलोक दोनों में व्यर्थ जाते हैं।