श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥39॥
श्रद्धावान्–श्रद्धायुक्त व्यक्ति; लभते-प्राप्त करता है; ज्ञानम्-दिव्य ज्ञान; तत्-परः-उसमें समर्पित; संयत-नियंत्रित; इन्द्रियः-इन्द्रियाँ; ज्ञानम्-दिव्य ज्ञान; लब्धवा-प्राप्त करके; पराम्-दिव्य; शान्तिम्-शान्ति; अचिरेण–अविलम्ब; अधिगच्छति–प्राप्त करता है।
Translation
BG 4.39: वे जिनकी श्रद्धा अगाध है और जिन्होंने अपने मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण कर लिया है, वे दिव्य ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। इस दिव्य ज्ञान के द्वारा वे शीघ्र ही कभी न समाप्त होने वाली परम शांति को प्राप्त कर लेते हैं।
Commentary
श्रीकृष्ण अब ज्ञान के संदर्भ में श्रद्धा के दृष्टिकोण का वर्णन कर रहे हैं। सभी आध्यात्मिक सत्यों को शीघ्र स्वीकार नहीं किया जा सकता इनमें से कुछ को इस मार्ग में अत्यधिक रूप से उन्नत होने पर अनुभव किया जा सकता है। यदि हम केवल उसे स्वीकार करते हैं जिसे हम वर्तमान में परख और समझ सकते हैं तब हम उच्चतम आध्यात्मिक रहस्यों से वंचित हो जाएंगे। जिसे हम वर्तमान में समझ नहीं पा रहे हैं उसे समझने और स्वीकार करने में श्रद्धा हमारी सहायता करती है। जगद्गुरु शंकराचार्य ने श्रद्धा की परिभाषा इस प्रकार से की है-
गुरु वेदान्त वाक्येषु दृढो विश्वासः श्रद्धा।
"श्रद्धा का अर्थ गुरु और धार्मिक ग्रंथों के शब्दों में दृढ़ विश्वास होना है।" यदि ऐसी श्रद्धा किसी ढोंगी व्यक्ति पर रखी जाती है तब इसके विध्वंसात्मक परिणाम होते हैं। जब यह सच्चे गुरु में रखी जाती है तब इससे आत्मकल्याण का मार्ग खुलता है। किन्तु इसके लिए अंध विश्वास वांछनीय नहीं होता। हरि-गुरु के प्रति श्रद्धा रखने से पूर्व हमें अपनी बुद्धि का प्रयोग कर यह पुष्टि करनी चाहिए कि गुरु ने परम सत्य का अनुभव किया है या नहीं और क्या वह शाश्वत वैदिक ग्रंथों के अनुसार विद्या प्रदान कर रहा है? एक बार जब इसकी पुष्टि हो जाती है तब हमें ऐसे गुरु के प्रति श्रद्धा प्रकट करनी चाहिए और उसके मार्गदर्शन में भगवान के समक्ष शरणागत होना चाहिए। श्वेताश्वतरोपनिषद् में वर्णित है-
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद्-6.23)
"सभी प्रकार के वैदिक ज्ञान की महत्ता उन्हीं मनुष्यों के हृदय में प्रकट होती है जिनकी भगवान और गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा होती है।"