न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥14॥
न-कभी नहीं; माम्-मुझको; कर्माणि-कर्म; लिम्पन्ति–दूषित करते हैं; न-नहीं; मे मेरी; कर्मफले-कर्म-फल में; स्पृहा-इच्छा; इति–इस प्रकार; माम्-मुझको; यः-जो; अभिजानाति–जानता है; कर्मभिः-कर्म का फल; न कभी नहीं; सः-वह; बध्यते-बँध जाता है।
Translation
BG 4.14: न तो कर्म मुझे दूषित करते हैं और न ही मैं कर्म के फल की कामना करता हूँ जो मेरे इस स्वरूप को जानता है वह कभी कर्मफलों के बंधन में नहीं पड़ता।
Commentary
भगवान पूर्ण विशुद्ध तत्त्व हैं और वे जो भी कर्म करते हैं वे शुद्ध और पवित्र हो जाते हैं। रामचरितमानस में वर्णन है
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं।
रबि पावक सुरसरि की नाईं।।
"सूर्य, अग्नि और गंगा के समान विशुद्ध तत्त्व अशुद्ध परिस्थितियों और सत्ता के संपर्क से कभी विकारों से दूषित नहीं होते। सूर्य की रोशनी मूत्र के कीचड़ पर पड़ने से दूषित नहीं होती। सूर्य अपनी शुद्धता बनाए रखता है और साथ ही साथ गंदे कीचड़ को भी शुद्ध कर देता है। समान रूप से यदि हम कोई अशुद्ध पदार्थ अग्नि में डालते हैं तो अग्नि की शुद्धता तो बनी रहती है तथा उसमें जो वस्तु डालते हैं वह भी अग्नि का रूप लेकर शुद्ध हो जाती है। इस प्रकार से अनेक बरसाती गटरों का गंदा पानी पवित्र गंगा में मिल जाता है किन्तु वह गंगा को गंदा नहीं कर सकता और पवित्र गंगा इन गटरों के गंदे पानी को शुद्ध कर उसे भी पवित्र कर देती है। इसी प्रकार से भगवान अपने कर्मों का सम्पादन करने से दूषित नहीं होते।" जब मानसिक रूप से फल भोगने की इच्छा से कर्म किए जाते हैं तब वे मनुष्य को कर्म की प्रतिक्रियाओं में बांधते हैं। भगवान के कर्म स्वार्थ से प्रेरित नहीं होते। उनके प्रत्येक कार्य जीव-मात्र पर करुणा करने के लिए होते हैं। इसलिए यद्यपि वे संसार पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शासन करते हैं और इस प्रक्रिया में सभी प्रकार के कार्यों में संलग्न रहते हैं लेकिन वे कर्मों की प्रतिक्रिया से दूषित नहीं होते। श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे कर्म की फलदायी प्रतिक्रिया से परे हैं। यहाँ तक कि भगवद् चेतना में लीन संत महापुरुष भी प्राकृतिक शक्ति के प्रभाव से परे हो जाते हैं क्योंकि उनके सभी कार्य भगवान के प्रति प्रेम की भावना से युक्त होते हैं। ऐसे शुद्ध अन्तःकरण वाले संत कर्मों की फलदायी प्रतिक्रियाओं के बंधन में नहीं पड़ते। श्रीमद्भागवतम् में वर्णन है
यत्पादपङ्कजपरागनिषेवतृप्ता योगप्रभावविधुताखिलकर्मबन्धाः।
स्वैरं चरन्ति मुनयोऽपि न नामानास्तस्येच्छयाऽऽत्तवपुषः कुत एव बन्धः।
(श्रीमद्भागवतम्-10.33.35)
" भगवान के उन भक्तों को लौकिक कर्म कभी दूषित नहीं कर सकते जो भगवान के चरण कमलों की धूल पाकर संतुष्ट हो जाते हैं। लौकिक कर्म उन ज्ञानी संतों को दूषित नहीं करते जो योग शक्ति द्वारा कर्म की फलदायी प्रतिक्रियाओं से मुक्ति पा लेते हैं। तब फिर ऐसे में यह प्रश्न ही कहाँ रह जाता है कि वे भगवान जो अपनी सदिच्छानुसार अपने अलौकिक स्वरूप में रहते हैं, कर्म के पाश में बंध सकते हैं?"