अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥6॥
अजः-अजन्मा; अपि-तथापिः सन्-होते हुए; अव्यय-आत्मा-अविनाशी प्रकृति का; भूतानाम्-सभी जीवों का; ईश्वरः-भगवान; अपि-यद्यपि; सन्–होने पर; प्रकृतिम्-दिव्य प्रकृति; स्वाम्-अपने; अधिष्ठाय-स्थित; सम्भवामि-मैं अवतार लेता हूँ; आत्म-मायया-अपनी योगमाया शक्ति से।
Translation
BG 4.6: यद्यपि मैं अजन्मा और समस्त जीवों का स्वामी और अविनाशी प्रकृति का हूँ तथापि मैं इस संसार में अपनी दिव्य शक्ति योगमाया द्वारा प्रकट होता हूँ।
Commentary
कुछ लोग इस मत का विरोध करते हैं कि भगवान मनुष्य का रूप धारण करते हैं। वे भगवान के निराकार रूप के साथ अधिक सहज रहते हैं जो सर्वत्र व्याप्त, अमूर्त और सूक्ष्म है। भगवान निश्चित रूप अमूर्त और निराकार है किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि भगवान एक साथ अपने निराकार और साकार रूप में नहीं रह सकते। यदि कोई कल्पना करता है कि भगवान का साकार रूप नहीं है तब इसका यह अर्थ होगा कि वह व्यक्ति भगवान को सर्व शक्तिशाली नहीं मानता इसलिए यह कहना कि 'भगवान निराकार है' यह एक अधूरा कथन है। अन्य शब्दों में यह कहना कि 'भगवान साकार रूप में प्रकट होते हैं यह भी एक अधूरा सत्य है। सर्वशक्तिमान भगवान के अपने दिव्य व्यक्तित्त्व के साकार और निराकार दो रूप हैं। इसलिए बृहदारण्यकोपनिषद् में वर्णन है
द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च। (बृहदारण्यकोपनिषद्-2.3.1)
'भगवान दो रूपों में प्रकट होते हैं-निराकार 'ब्रह्म' के रूप में और साकार 'भगवान' के रूप में। ये दोनों भगवान के परम व्यक्तित्त्व के आयाम हैं। वास्तव में जीवात्मा में भी ये दोनों आयाम होते हैं। यह निराकार है और इसलिए जब यह मृत्यु के समय शरीर को त्याग देती है तब यह दिखाई नहीं देती। फिर भी यह दूसरा शरीर धारण करती है और केवल एक बार ही नहीं बल्कि अनन्त बार क्योंकि वह एक जन्म से दूसरे जन्म में शरीर बदलती रहती है। जब अणु आत्मा शरीर धारण करने के योग्य हो सकती है तब फिर सर्वशक्तिशाली भगवान साकार रूप धारण क्यों नहीं कर सकते? या भगवान यह कहते हैं-"मेरे पास साकार रूप में प्रकट होने की शक्ति नहीं है और इसलिए मैं केवल एक निराकार ज्योति हूँ।" सर्वज्ञता और पूर्णता के दिव्य गुणों से परिपूर्ण होने के लिए भगवान का साकार और निराकार दोनों रूपों में होना आवश्यक है। भगवान और जीवात्मा में यह भेद इसलिए है कि हमारा शरीर प्राकृत अर्थात माया शक्ति से निर्मित है। भगवान का साकार रूप उनकी दिव्य शक्ति योगमाया द्वारा निर्मित होता है इसलिए यह दिव्य है और भौतिक विकारों से परे है। पद्मपुराण में इसका विशद वर्णन इस प्रकार से है-
यस्तु निर्गुण इत्युक्तः शास्त्रेषु जगदीश्वरः।
प्राकृतैर्हेय संयुक्तैर्गुणैर्लीनत्वमुच्यते ।।
"जबकि वैदिक ग्रंथों में वर्णन किया गया है कि भगवान का कोई रूप नहीं होता इससे वे यह इंगित करते हैं कि भगवान का रूप प्राकृतिक शक्ति के विकार से निर्मित नहीं है अपितु इसके विपरीत वह दिव्य रूप होता है"।