Bhagavad Gita: Chapter 5, Verse 23

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥23॥

शक्नोति-समर्थ है; इह-एव–इसी शरीर में; यः-जो; सोढुम्-सहन करना; प्राक्-पहले; शरीर-शरीर; विमोक्षणात्-त्याग करना; काम इच्छा; क्रोध-क्रोध से; उद्भवम्-उत्पन्न वेगम्-बल से; सः-वह; युक्तः-योगी; सः-वही व्यक्ति; सुखी-सुखी; नरः-व्यक्ति।

Translation

BG 5.23: वे मनुष्य ही योगी हैं जो शरीर को त्यागने से पूर्व कामनाओं और क्रोध के वेग को रोकने में समर्थ होते हैं, केवल वही संसार मे सुखी रहते हैं।

Commentary

मानव शरीर में ही आत्मा को भगवद्प्राप्ति के परम लक्ष्य तक पहुँचने का सुनहरा अवसर प्राप्त होता है। इस शरीर में हम विवेक शक्ति से युक्त होते हैं जबकि पशु अपनी प्रवृत्ति के अनुसार जीवन निर्वाह करते हैं। 

श्रीकृष्ण बलपूर्वक कहते हैं कि कामनाओं और क्रोध पर लगाम लगाने के लिए हमें अपनी विवेक शक्ति का प्रयोग करना चाहिए। 'काम' शब्द का एक अर्थ काम वासना है लेकिन इस श्लोक में काम शब्द का प्रयोग शरीर और मन की तृप्ति के लिए सभी प्रकार के भौतिक सुखों के लिए किया गया है। जब मन अपनी कामना के पदार्थों को प्राप्त नहीं कर पाता तब वह अपनी मनोव्यथा क्रोध के रूप में प्रकट करता है। कामना की लालसा और क्रोध नदी की तेज धारा की भांति शक्तिशाली होते हैं। यहाँ तक कि पशु भी इन उत्कंठाओं के अधीन होते हैं किन्तु वे मनुष्य की भांति विवेक के गुण से सम्पन्न न होने के कारण इन्हें रोक नहीं पाते। मानव जाति ज्ञान शक्ति से सम्पन्न है। 'सौद' शब्द का अर्थ 'सहन करना' है। इस श्लोक में हमें कामनाओं और क्रोध के वेग को सहन करने की शिक्षा दी गयी है। कुछ समय तक कोई लज्जावश अपने मनोवेग को रोक सकता है। जैसे कि कोई व्यक्ति हवाई अड्डे पर बैठा हुआ है। कोई सुन्दर महिला उसके बगल में आकर बैठ जाती है। उसके मन में उसके ऊपर अपनी बाजू रख कर आनन्द पाने की इच्छा उठती है किन्तु उसकी बुद्धि उसे ऐसा करने से रोकती है, "यह अनुचित व्यवहार है और महिला मुझे थप्पड़ भी मार सकती है।" अपमान से बचने के लिए वह स्वयं को रोकता है। किन्तु यहाँ श्रीकृष्ण अर्जुन को लज्जा, भय और संदेह के कारण की अपेक्षा ज्ञान पर आधारित विवेक द्वारा मन के वेग को रोकने के लिए कह रहे हैं। मन पर अंकुश लगाने के लिए दृढ़ बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए। जैसे ही मन में भौतिक सुखों से आनन्द लेने का विचार उत्पन्न हो तब उसी समय हमें बुद्धि को यह समझाना चाहिए कि ये सब दुख के साधन हैं। श्रीमद्भागवतम् में वर्णन है

नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान् कामानर्हते विड्भुजा ये। 

तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धयेद्यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् ।।

(श्रीमद्भागवतम्-5:5:1)

 "इस मनुष्य योनि में इन्द्रिय सुख प्राप्त करने के लिए कठोर परिश्रम करना व्यर्थ है क्योंकि ऐसे सुख तो सूकर जैसे तथा अन्य ऐसे जीव जंतुओं को भी प्राप्त हैं, जो विष्ठा का सेवन करते हैं। इसकी अपेक्षा हमें तप करना चाहिए, जिससे हमारा अंत:करण पवित्र होगा और हम भगवान के असीम आनन्द में मग्न हो जाएंगे।" विवेक शक्ति के प्रयोग का अवसर केवल मानव शरीर को प्राप्त है जो इसका प्रयोग कर इस जीवन में कामनाओं और क्रोध पर अंकुश रखने के योग्य हो जाता है। वह इसी जीवन में योगी बन जाता है। ऐसा सिद्ध पुरुष परम सुख का केवल आस्वादन कर सदा उसी में सुखी रहता है।

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