नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपश्वसन् ॥8॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥9॥
न-नहीं; एव-निश्चय ही; किंचित्-कुछ भी; करोमि मैं करता हूँ; इति–इस प्रकार; युक्तः-कर्मयोग में दृढ़ता से स्थित; मन्येत–सोचता है; तत्त्ववित्-सत्य को जानने वाला; पश्यन्–देखते हुए; शृण्वन्–सुनते हुए; स्पृशन्-स्पर्श करते हुए; जिघ्रन्-सूंघते हुए; अश्नन्-खाते हुए; गच्छन्-जाते हुए; स्वपन्-सोते हुए; श्वसन्–साँस लेते हुए; प्रलपन्–बात करते हुए; विसृजन्–त्यागते हुए; गृह्णन्–स्वीकार करते हुए; उन्मिषन्–आंखें खोलते हुए; निमिषन्–आंखें बन्द करते हुए; अपि-तो भी; इन्द्रियाणि-इन्द्रियों कोः इन्द्रिय-अर्थेषु इन्द्रिय विषय; वर्तन्ते-क्रियाशील; इति–इस प्रकार; धारयन्–विचार करते हुए।
Translation
BG 5.8-9: कर्मयोग में दृढ़ निश्चय रखने वाले सदैव देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूंघते, चलते-फिरते, सोते हुए, श्वास लेते हुए, बोलते हुए, त्यागते हुए, ग्रहण करते हुए और आंखें खोलते या बंद करते हुए सदैव यह सोचते हैं- 'मैं कर्ता नहीं हूँ' और दिव्य ज्ञान के आलोक में वे यह देखते हैं कि भौतिक इन्द्रियाँ ही केवल अपने विषयों में क्रियाशील रहती हैं।
Commentary
जब हम किसी महत्वपूर्ण कार्य को कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर लेते हैं तब हमें यह अभिमान हो जाता है कि हमने कोई महान कार्य किया है। स्वयं को किसी कार्य का कर्ता मानने का अभिमान हमें लौकिक चेतना से ऊपर उठने में बाधा उत्पन्न करता है किन्तु भगवद्चेतना में लीन योगी इस बाधा को सरलता से पार कर लेते हैं। बुद्धि के शुद्धिकरण से वे स्वयं को शरीर से भिन्न देखते हैं और वे शरीर द्वारा किए गए कर्मों का श्रेय स्वयं को नहीं देते। यह शरीर भगवान की माया शक्ति से निर्मित है इसलिए वे अपने सभी कार्यों का श्रेय भगवान को देते हैं क्योंकि ये भगवान की शक्ति से सम्पन्न होते हैं। इसलिए वे स्वयं को भगवान की इच्छा पर समर्पित कर देते हैं। वे उन पर आश्रित होकर अपने मन और बुद्धि को भगवान की दिव्य इच्छा के अनुसार प्रेरित करते हैं। अतः वे इसी धारणा में स्थित रहते हैं कि भगवान ही सब कार्यों का कर्ता हैं।
कर्ता बहिरकरतान्तरलोके विहर राघव।
(योग वाशिष्ठ)
"हे राम, बाह्य दृष्टि से परिश्रम से कर्म करते रहो लेकिन आंतरिक दृष्टि से स्वयं को अकर्ता के रूप में देखो और भगवान को अपने सभी कार्यों का कर्त्ता मानो।" इस दिव्य चेतना में लीन योगी स्वयं को केवल भगवान के हाथों का खिलौना मानते हैं। श्रीकृष्ण अगले श्लोक में इस दिव्य चेतना में किए जाने वाले कार्यों के परिणाम की व्याख्या करते हैं।