Bhagavad Gita: Chapter 6, Verse 12-13

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्जयाद्योगमात्मविशुद्धये ॥12॥
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥13॥

तत्रै-वहाँ; एकाग्रम्-एक बिन्दु पर केन्द्रित; मनः-मन; कृत्वा-करके; यतचित्ते–मन पर नियंत्रण; इन्द्रिय-इन्द्रियाँ; क्रियः-गतिविधि; उपविश्या स्थिर होकर बैठना; आसने आसन पर; युञ्जयात्-योगम्-योग के अभ्यास के लिए प्रयास; आत्म-विशुद्धये-मन का शुद्धिकरण। समम्-सीधा; काय-शरीर; शिरः-सिर; ग्रीवम्-गर्दन; धारयन्-रखते हुए; अचलम्-स्थिर; स्थिरः-शान्त; सम्प्रेक्ष्य-दृष्टि रखकर; नासिका-अग्रम-नाक का अग्रभाग; स्वम्-अपनी; दिशः-दिशाएँ; च-भी; अनवलोकयन्-न देखते हुए;

Translation

BG 6.12-13: योगी को उस आसन पर दृढ़तापूर्वक बैठ कर मन को शुद्ध करने के लिए सभी प्रकार के विचारों तथा क्रियाओं को नियंत्रित कर मन को एक बिन्दु पर स्थिर करते हुए साधना करनी चाहिए। उसे शरीर, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए और आँखों को हिलाए बिना नासिका के अग्र भाग पर दृष्टि स्थिर करनी चाहिए।

Commentary

 साधना के लिए आसन पर बैठने का वर्णन करने के पश्चात श्रीकृष्ण आगे मन की एकाग्रता के लिए शरीर की उत्तम मुद्रा का वर्णन कर रहे हैं। साधना करते समय प्रायः लोगों में आलस्य तथा नींद की झपकी लेने की प्रवृत्ति पायी जाती है। ऐसा इसलिए होता है कि हमारे मायाबद्ध मन को आरम्भ में भगवान के चिन्तन में वैसा आनन्द प्राप्त नहीं होता जैसा वह इन्द्रिय विषयों का भोग करने में पाता है। इससे मन को भगवान पर केन्द्रित करते समय उसके शिथिल होने की संभावना बनी रहती है। हम लोगों को भोजन ग्रहण करते हुए बीच में ऊँघते हुए नहीं पाते लेकिन लोगों को साधना करते हुए या भगवान के नाम का जप करते हुए उन्हें सोते हुए देख सकते हैं। इससे बचने के लिए श्रीकृष्ण सीधा बैठने का उपदेश देते हैं। ब्रह्मसूत्र में भी साधना की मुद्रा के संबंध में तीन सूत्रों का वर्णन किया गया है-

आसीनः संभवात् ।।4.1.7।। 'उपयुक्त आसन पर बैठकर साधना करों।'

अचलत्वं चापेक्ष्य-।।4.1.19।। 'सुनिश्चित करो कि आप सीधे और स्थिर बैठे हैं।' 

ध्यानाच्च-।।4.1.8।। 'ऐसी मुद्रा में बैठो जिसमें मन साधना में केन्द्रित रहें।' 

हठयोग प्रदीपका में साधना के लिए कई प्रकार के आसनों का वर्णन किया गया है, जैसे-पद्मासन, अर्धपद्मासन, ध्यानवीरासन, सिद्धासन और सुखासन। हम साधना की अवधि के दौरान किसी भी ऐसे आसन जिसमें हम सुविधापूर्वक स्थिरता से बैठ सकते हैं, का चयन कर सकते हैं।

महर्षि पतंजलि कहते हैं

"स्थिरसुखमासानम्।।" 

(पतंजलि योग सूत्र-2.46) 

"साधना का अभ्यास करने के लिए अपनी सुविधानुसार मुद्रा में स्थिर बैठो।" कुछ लोग घुटनों में दर्द के कारण फर्श पर बैठने में असमर्थ होते हैं उन्हें हतोत्साहित नहीं होना चाहिए। वे सीधा और स्थिर बैठना सुनिश्चित करते हुए कुर्सी पर बैठकर साधना कर सकते हैं। इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने यह अभिव्यक्त किया है कि आँखे नासिका के अग्र भाग पर केन्द्रित होनी चाहिए और हिलने से बचना चाहिए। विकल्प के लिए आँखों को बंद भी रखा जा सकता है। ये दोनों विधियाँ सांसारिक आकर्षणों को रोकने में सहायक होगी। बाहरी आसन और मुद्रा का उपयुक्त होना आवश्यक है किन्तु साधना वास्तव में हमारे भीतर की यात्रा है। साधना के माध्यम से हम अपने भीतर गहनता से उतर सकते हैं और मन के अनन्त जन्मों की मैल को स्वच्छ कर सकते हैं। मन को एकाग्र करना सीखकर हम इसकी अव्यक्त क्षमता पर अंकुश लगा सकते हैं। साध ना के अभ्यास से हमें अपने व्यक्तित्व को उन्नत करने में सहायता मिलती है, हमारी आंतरिक चेतना जागृत होती है और हमारा आत्म ज्ञान बढ़ता है। 

साधना के आध्यात्मिक लाभों का वर्णन बाद में श्लोक 6.15 की व्याख्या में किया जाएगा। साधना के कुछ अन्य लाभ इस प्रकार है

1. यह अनियंत्रित मन पर अंकुश लगाती है और कठिन लक्ष्य पाने के लिए विचार शक्ति पर लगाम लगाती है। 

2. प्रतिकूल परिस्थतियों में मानसिक संतुलन बनाये रखने में सहायता करती है। 

3. जीवन में सफलता के लिए अनिवार्य दृढ़ संकल्प को विकसित करने में सहायता करती है। यह मनुष्य को बुरे संस्कारों और प्रवृत्तियों का उन्मूलन करने और सद्गुणों को उत्पन्न करने के योग्य बनाती है। 

एक उत्तम प्रकार की साधना वह है जिसमें मन भगवान पर केन्द्रित किया जाता है। इसे अगले दो श्लोकों में स्पष्ट किया गया है।