उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥5॥
उद्धरेत्-उत्थान; आत्मना-मन द्वारा; आत्मानम्-जीव; न-नहीं; आत्मानम्-जीव; अवसादयेत्-पतन होना; आत्मा-मन; एव–निश्चय ही; हि-वास्तव में; आत्मनः-जीव का; बन्धुः-मित्र; आत्मा-मन; एव-निश्चय ही; रिपुः-शत्रु; आत्मनः-जीव का।
Translation
BG 6.5: मन की शक्ति द्वारा अपना आत्म उत्थान करो और स्वयं का पतन न होने दो। मन जीवात्मा का मित्र और शत्रु भी हो सकता है।
Commentary
हम अपने आत्म उत्थान और पतन के लिए स्वयं उत्तरदायी होते हैं। हमारे लिए भगवद्प्राप्ति के मार्ग में कोई भी बाधा उत्पन्न नहीं कर सकता। संत और गुरु हमें मार्ग दिखाते हैं, किन्तु हम अपनी इच्छा के मार्ग पर चलना चाहते हैं। हिन्दी में कहावत है-'एक पेड़ पर दो पक्षी बैठे, एक गुरु एक चेला, अपनी करनी गुरु उतारे, अपनी करनी चेला।' इसका अर्थ यह है कि एक पेड़ पर दो पक्षी बैठे हैं-एक गुरु और चेला। गुरु का पतन उसके स्वयं के कर्मों से होगा और चेला भी अपने कर्मों से नीचे की ओर गिरेगा। इस जन्म से पूर्व हमारे अनन्त जन्म हो चुके हैं और भगवानुभूत संत भी सदा धरती पर रहे हैं। यदि किसी भी समय संसार ऐसे संतों से विहीन होता तब उस समय जीवात्माओं को भगवद् प्राप्ति नहीं हो सकती थी और फिर लोग मानव जीवन के परम लक्ष्य भगवद्प्राप्ति को कैसे पा सकते थे? इसलिए भगवान यह सुनिश्चित करते हैं कि भगवानुभूत संत सदा प्रत्येक युग में विद्यमान रहकर निष्ठावान भक्तों का मार्गदर्शन करे और मानवता के प्रेरक बनें। इस प्रकार हम अनन्त पूर्व जन्मों में कई बार इस प्रकार की भगवद्चेतना युक्त संतों से मिले हैं किन्तु फिर भी हमें कभी भगवद्प्राप्ति नहीं हुई। इसका तात्पर्य यह है कि उचित मार्गदर्शन के अभाव की समस्या कभी नहीं थी लेकिन या तो इन संतो के उपदेशों को स्वीकार करने में हमारी मूकता या इनका अनुपालन न करना ही मुख्य समस्या रही होगी। इसलिए हमें पहले अपनी वर्तमान आध्यात्मिक अवस्था के स्तर या इसकी कमी को स्वीकार करना चाहिए। यदि हमें अपनी वर्तमान अवस्था का बोध हो जाता है केवल तभी हमारे भीतर आत्म विश्वास जागृत होता है और हम अपने प्रयत्नों से भी स्वयं का उत्थान कर सकते हैं।
जब हम आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में प्रतिकूलताओं का सामना करते हैं तब हम शिकायत करते हैं कि अन्य लोग हमारे विध्वंस का कारण हैं और वे हमारे शत्रु हैं। जबकि हमारा सबसे बड़ा शत्रु हमारा अपना मन है। विध्वंस का कारण यही मन है। मन हमारी पूर्णता की अभिलाषा को निष्फल कर देता है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि एक ओर जीवात्मा के परम हितैषी के रूप में मन में हमें अधिक से अधिक लाभ प्रदान करने की क्षमता होती है तथा दूसरी ओर उसमें हमें अधिकतम हानि पहुँचाने की क्षमता भी होती है। नियंत्रित मन कई कल्याणकारी कार्य पूर्ण कर सकता है जबकि अनियंत्रित मन अति अधम विचारों के साथ हमारी चेतना को विकृत कर सकता है। मन को मित्र के रूप में प्रयोग करने के लिए मन की प्रवृति को समझना आवश्यक है। हमारा मन चार तत्त्वों द्वारा संचालित होता है-
मनः जब इसमें विचार उत्पन्न होते हैं तब हम इसको मन कहते हैं।
बुद्धिः जब यह विश्लेषण और निर्णय करता है तब हम इसे बुद्धि कहते हैं।
चित्तः जब यह किसी विषय या व्यक्ति के प्रति आसक्त हो जाता है तब हम इसे चित्त कहते हैं।
अहंकारः जब हमें धन, प्रतिष्ठा, सुन्दरता और ज्ञान जैसी चीजों पर अहंकार हो जाता है तब हम इसे अहंकार कहते हैं।
यह चारों पृथक तत्त्व नहीं है। यह केवल मन के संचालन की चार उपाधियाँ हैं। इसलिए हम इन्हें एक साथ 'मन या मन-बुद्धि' या 'मन-बुद्धि-अहंकार' या 'मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार' कह सकते हैं। इन सबका अभिप्राय एक ही है। फ्रॉयडियन मनोविज्ञान में अहंकार शब्द का प्रयोग भिन्न अर्थ के रूप में किया गया है। सिगमंड फ्रॉयड (1856-1939)। एक ऑस्ट्रियन तंत्रिका वैज्ञानिक ने मन कैसे कार्य करता है, का पहला मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त प्रस्तुत किया। उसके अनुसार अहंकार 'वास्तविक स्वार्थ' है जो निरंकुश कामनाओं (इड) और बचपन में सीखे गए संस्कारों के बीच खाई भरता है।
विभिन्न धार्मिक ग्रंथ मन का निरूपण करने के लिए इन चारों अवयवों में से किसी एक का विश्लेषण उनमें उल्लिखित दृष्टिकोण को समझाने के प्रयोजन से करते हैं। यह सब हमारे भीतर के उसी तंत्र का संकेत करते हैं जिसे एक साथ अन्त:करण या मन कहा जाता है। उदाहरणार्थ-
1. पंचदशी सभी चारों का एक साथ मन के रूप में उल्लेख करता है और यह व्यक्त करता
है कि यह भौतिक बंधनों का कारण हैं।
2. भगवद्गीता में श्रीकृष्ण बार-बार मन और बुद्धि की चर्चा करते हैं और इन्हें भगवान को
समर्पित करने पर बल देते हैं।
3. योग दर्शन प्रकृति के विभिन्न तत्त्वों का विश्लेषण करते समय तीन तत्त्वों मन, बुद्धि और
अहंकार की चर्चा करता है।
4. शंकराचार्य ने आत्मा के तंत्र को स्पष्ट करते समय मन को चार प्रकार से वर्गीकृत किया है-मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार।
इसलिए जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि हमें मन का प्रयोग स्वयं के उत्थान के लिए करना चाहिए तब उनका कहने का तात्पर्य यह होता है कि हमें अपने उन्नत मन का प्रयोग कर अपने अवनत मन को ऊपर उठाना चाहिए। दूसरे शब्दों में हमें बुद्धि का प्रयोग मन को नियंत्रित करने के लिए करना चाहिए। ऐसा कैसे संभव होगा? इसकी विस्तृत व्याख्या श्लोक 2.41 और 2.44 और पुनः श्लोक 3.33 में की गयी है।