बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥19॥
बहूनाम्-अनेक; जन्मनाम्-जन्म; अन्ते-बाद में; ज्ञान-वान्–ज्ञान में स्थित मनुष्य; माम्-मुझको; प्रपद्यते शरणागति; वासुदेवः-वासुदेव के पुत्र, श्रीकृष्ण; सर्वम्-सब कुछ; इति–इस प्रकार; सः-ऐसा; महा-आत्मा-महान आत्मा; सु-दुर्लभः-विरले।
Translation
BG 7.19: अनेक जन्मों की आध्यात्मिक साधना के पश्चात जिसे ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वह मुझे सबका उद्गम जानकर मेरी शरण ग्रहण करता है। ऐसी महान आत्मा वास्तव में अत्यन्त दुर्लभ होती है।
Commentary
यह श्लोक सामान्य मिथ्या धारणा को स्पष्ट करता है। प्रायः ऐसे लोग जो बौद्धिक रूप से भक्ति को ज्ञान से निम्न मानकर उसका उपहास करने में प्रवृत्त रहते हैं। वे ज्ञान विकसित करने के अपने दंभ को प्रसारित करते रहते हैं और भक्ति में तल्लीन लोगों को निम्न दृष्टि से देखते हैं। किन्तु इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने एकदम विपरीत कहा है। वे कहते हैं कि अनेक जन्मों तक ज्ञान का अनुशीलन करने के पश्चात जब ज्ञानी का ज्ञान परिपक्व अवस्था प्राप्त करता है तब वह अंततः भगवान के शरणागत होता है। वास्तव में सच्चा ज्ञान भक्ति की ओर ले जाता है। एक बार एक व्यक्ति समुद्र के किनारे भ्रमण कर रहा था और उसे वहाँ रेत में अंगूठी मिल गयी। उसने अंगूठी उठा ली लेकिन उसे अंगूठी का मूल्य ज्ञात नहीं था। उसने सोचा कि यह बनावटी आभूषण होगा और सामान्य रूप से आजकल उसका मूल्य मात्र 100 रुपये होना चाहिए। अगले दिन वह सुनार के पास गया और उससे कहा-'क्या तुम मुझे इस अंगूठी का दाम बता सकते हो? सुनार ने अंगूठी को परखा और कहा-'यह 22 केरेट का सोना है। इसका दाम एक लाख रुपये होना चाहिए।' यह सुनकर उस व्यक्ति का उस अंगूठी में अनुराग बढ़ गया। अब जब वह उस अंगूठी को देखता तब उसे इतनी प्रसन्नता होती जितनी उसे एक लाख रुपये का उपहार प्राप्त होने पर होती।
कुछ दिन व्यतीत होने के पश्चात उसका चाचा उसे मिला जो एक सुनार था और दूसरे नगर से आया था। उसने अपने चाचा से पूछा-'क्या आप इस अंगूठी और इसमें जड़े रत्न के मूल्य का आंकलन कर सकते हो।' उसके चाचा ने अंगूठी को देखा और चिल्ला कर कहने लगा—'यह तुम्हें कहाँ से मिली? यह शुद्ध हीरा है और इसका दाम एक करोड़ रुपये होगा।' यह सुनकर वह आनन्द से ओत-प्रोत हो गया और कहने लगा-'चाचा जी कृपया मेरे साथ उपहास न करें।' चाचा ने कहा-'नहीं मेरे पुत्र! मैं तुमसे कोई उपहास नहीं कर रहा। यदि तुम्हें विश्वास नहीं है तो तुम मुझे यह अंगूठी 75 लाख रुपये में बेच सकते हो' अब अंगूठी के वास्तविक मूल्य के संबंध में उसकी जानकारी पुष्ट हो गयी। तत्क्षण उसकी अंगूठी में आसक्ति बढ़ गयी। उसे लगा कि उसने कोई लॉटरी जीत लिया है और उसके आनन्द की कोई सीमा नहीं थी।
यह देखें कि कैसे उस व्यक्ति का उस अंगूठी के प्रति अनुराग उसके ज्ञान के अनुपात के अनुसार बढ़ता गया। जब उसे ज्ञात हुआ कि अंगूठी का दाम 100 रुपये है तब उसका अनुराग उसके प्रति कुछ सीमा तक बढ़ा। जब उसे यह जानकारी मिली कि उस अंगूठी का दाम एक लाख रुपये है तब उसी अनुपात में अंगूठी के प्रति उसका अनुराग और अधिक बढ़ गया। फिर जब उसे यह ज्ञात हुआ कि अंगूठी का वास्तविक मूल्य एक करोड़ रुपये है फिर उसके प्रति उसकी आसक्ति उसी प्रकार से बढ़ी। उपर्युक्त उदाहरण ज्ञान और प्रेम के प्रत्यक्ष पारस्परिक संबंध को चित्रित करता है। रामचरितमानस में भी वर्णन किया गया है
जानें बिन होइ न परतीती।
बिनु परतीती होइ नहिं प्रीती ।।
"बिना ज्ञान के श्रद्धा उत्पन्न नहीं हो सकती और बिना श्रद्धा के प्रेम नहीं बढ़ सकता।" इसलिए सच्चा ज्ञान स्वाभाविक रूप से प्रेम के साथ प्राप्त होता है। यदि हम यह दावा करते हैं कि हम ब्रह्म के ज्ञान से सम्पन्न हैं लेकिन यदि हम उसके प्रति प्रेम की अनुभूति नहीं करते तब हमारा ज्ञान केवल सैद्धान्तिक होता है।
यहाँ श्रीकृष्ण यह व्यक्त करते हैं कि अनेक जन्मों तक ज्ञान का अनुशीलन करने के पश्चात जब ज्ञानी मनुष्य का ज्ञान परिपक्व होकर सत्य ज्ञान में परिवर्तित हो जाता है तब वह परम प्रभु को सभी का उद्गम जानकर उनके शरणागत होता है। इस श्लोक में यह चित्रित किया गया है कि महान आत्माएँ विरली ही होती हैं। भगवान ऐसे वचन ज्ञानी, कर्मी, हठ योगी इत्यादि के लिए नहीं कहते अपितु वे यह सब केवल अपने भक्त के लिए कहते हैं और यह घोषणा भी करते हैं कि ऐसी महान आत्माएँ अत्यंत दुर्लभ होती हैं जो यह समझती हैं कि “भगवान ही सबकुछ हैं और उनके शरणागत होती हैं।" ।