द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च
कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥34॥
द्रोणम्-च-द्रोणाचार्य; भीष्मम्-भीष्म, च-और; जयद्रथम्-जयद्रथ; च-और; कर्णम्-कर्ण तथा-भी; अन्यान्-अन्य; अपि भी; योधा-वीरान्–महायोद्धा; मया मेरे द्वारा; हतान्–पहले ही मारे गये; त्वम्-तुम; जहि-मारो; मा मत; व्यथिष्ठाः-विक्षुब्ध होओ; युधयस्व-लड़ो; जेता असि-तुम विजय पाओगे; रणे युद्ध में; सपत्नान्-शत्रुओं पर।
Translation
BG 11.34: द्रोणाचार्य, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण और अन्य महायोद्धा पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। इसलिए बिना विक्षुब्ध हुए इनका वध करो, केवल युद्ध करो और तुम अपने शत्रुओं पर विजय पाओगे।
Commentary
कौरवों की ओर से कई सेना नायक कभी युद्ध में पराजित नहीं हुए थे। जयद्रथ को वरदान प्राप्त था कि उसका वध होने पर जैसे ही उसका शीश भूमि पर गिरेगा तब उसी समय उसका वध करने वाले प्रतिद्वंदी का शीश भी टुकड़े होकर भूमि पर गिरेगा। कर्ण के पास इन्द्र द्व रा दिया गया 'शक्ति' नामक विशेष शस्त्र था जिसका प्रयोग कर वह किसी का भी वध कर सकता था किन्तु इसका प्रयोग केवल एक बार ही किया जा सकता था इसलिए कर्ण ने इसे अर्जुन का वध करने के लिए सुरक्षित रखा था। द्रोणाचार्य ने परशुराम, जो भगवान का अवतार थे, से सभी प्रकार के शस्त्रों को निष्क्रिय करने की विद्या ग्रहण की थी। भीष्म पितामह को इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था और वे स्वयं अपनी मृत्यु का समय और स्थान निश्चित कर सकते थे किन्तु फिर भी यदि भगवान ने युद्ध में किसी को मारना चाहा तब उन्हें कोई भी बचा न सका। इसलिए कहा जाता है
विंध्या न ईंधन पाईये, सागर जुदाई न नीर
पराई उपस कुबेर घर, ज्यों विपक्ष रघुबीर
"अगर भगवान राम किसी के विरुद्ध होने का निर्णय कर लें तब तुम संभवतः विंध्याचल वन में निवास करने लगो किन्तु वहाँ तुम्हें जलाने के लिए लकड़ियाँ प्राप्त नहीं होगी अगर तुम समुद्र के किनारे भी रहो तब भी तुम्हें अपनी आवश्यकता के लिए जल उपलब्ध नहीं होगा। यदि तुम धन के देवता कुबेर के घर में वास करते हो तब तुम्हें पर्याप्त भोजन भी नहीं मिल सकता।" यहाँ तक कि अगर भगवान किसी को मारना चाहें तब उस व्यक्ति को मृत्यु से बचाने के लिए कितने ही कड़े सुरक्षा प्रबन्ध भी क्यों न कर लिए जाएँ तब भी उसकी मृत्यु को टाला नहीं जा सकता। समान रूप से श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन्होंने युद्ध के परिणाम का निर्णय पहले ही कर रखा है लेकिन वह चाहते हैं कि अर्जुन उनकी इच्छा को पूरा करने का माध्यम बने और युद्ध में विजयी होकर यश प्राप्त करे। जिस प्रकार भक्त भगवान की महिमा मंडित करता है। उसी प्रकार से भगवान की प्रकृति भी अपने भक्त की प्रशंसा करने की होती है। इसलिए श्रीकृष्ण युद्ध में मिलने वाली विजय का श्रेय अपने ऊपर नहीं लेना चाहते थे। उनकी यह इच्छा थी कि लोग यह कहें कि “अर्जुन ने अति शौर्य के साथ युद्ध लड़ते हुए पांडवों की विजय सुनिश्चित की।"
आध्यात्मिक जीवन में भी साधक प्रायः उस समय हतोत्साहित हो जाते हैं जब वे स्वयं को क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, काम-वासना, अहंकार आदि मनोविकारों को वश में करने में समर्थ नहीं पाते। उनका गुरु उन्हें प्रोत्साहित करते हुए कहता है "निराश न हो, उठो इन मनोविकारों का सामना करो लड़ो और तभी तुम अपने मन के शत्रु पर विजय पाओगे, क्योंकि भगवान तुम्हें विजयी बनाना चाहते हैं।" तुम्हारे प्रयास केवल निमित्त मात्र होंगे जबकि भगवान अपनी कृपा से तुम्हारी विजय सुनिश्चित करने की योजना बनाते हैं। भगवान द्वारा कर्तव्य पालन करने के आह्वान को सुनकर अर्जुन ने क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की। इसकी व्याख्या अगले श्लोक में की गयी है।