नभः स्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।
दृष्ट्ववा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥24॥
नभः-स्पृशम्-आकाश को स्पर्श करता हुआ; दीप्तम्-प्रकाशित; अनेक-कई; वर्णम्-रंग; व्यात्त-खुले हुए; अननम्-मुख; दीप्त-प्रदीप्त; विशाल-बड़े; नेत्रम्-आँखें; दृष्टवा-देखकर; हि-निश्चय ही; त्वाम्-आपको; प्रव्यथित:-अन्तः-आत्मा मेरा हृदय थर-थर कांप रहा है; धृतिम्-दृढ़ता से; न-नहीं; विन्दामि-पाता हूँ; शमम्-मानसिक शान्ति को; च-भी; विष्णो-भगवान विष्णु।
Translation
BG 11.24: हे विष्णु भगवान! आकाश को स्पर्श करते हुए बहु रंगों, दीप्तिमान, मुख फैलाए और चमकती हुई असंख्य आंखों से युक्त आपके रूप को देखकर मेरा हृदय भय से कांप रहा है और मैंने अपना सारा धैर्य और मानसिक संतुलन खो दिया है।
Commentary
भगवान के ब्रह्माण्डीय रूप को देखकर अर्जुन की श्रीकृष्ण के साथ संबंध की प्रकृति परिवर्तित हो गयी। पहले वह उन्हें अपने अंतरंग मित्र के रूप में देखता था और उनका परस्पर व्यवहार एक सहयोगी की भांति था। यह प्रेम की प्रकृति है। यह मन को इतनी गहनता से तल्लीन कर देता है कि भक्त अपने प्रियत्तम भगवान की वास्तविक सर्वज्ञता को भूल जाता है। यदि वह औपचारिकता बनाए रखता है तब वह प्रेम में परिपूर्णता प्रकट करने में असमर्थ रहता है।
उदाहरणार्थ एक पत्नी अपने पति से गहन प्रेम करती है। यद्यपि वह किसी राज्य का राज्यपाल हो तब भी पत्नी उसे पति के रूप में ही देखती है और इसी कारण से वह उससे घनिष्ठ संबंध बनाने में सफल हो सकती है। यदि उसकी बुद्धि यह निर्णय कर लेती है कि उसका पति तो राज्यपाल है फिर जब भी वह उसके सामने आएगा उसे तब उसकी सेवा के लिए तत्पर रहना और औपचारिक रूप से उसका अधिक सम्मान करना होगा। इसलिए प्रियतम की औपचारिक स्थिति का ज्ञान प्रेम की भावनाओं में डूब जाता है। इस प्रकार की स्थिति भगवान के प्रति समर्पण भक्ति की दशा में होती है। बृज के ग्वालबाल ने श्रीकृष्ण को अपने अंतरंग सखा के रूप में देखते थे। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने उनकी श्रीकृष्ण के साथ की गई लीलाओं में इसका अति सुन्दर चित्रण किया है
देखो देखो री, ग्वाल बालन यारी
रिझवत खेल जिताय सखन को,
घोड़ा बनि बनि बनवारी
(प्रेम रस मदिरा रसिया माधुरी पद-7)
" श्रीकृष्ण और उनके ग्वाल बाल सखाओं के बीच मधुर प्रेम को तो देखो कि वे परस्पर खेलते हैं और जब श्रीकृष्ण खेल में हार जाते हैं तो वह भूमि पर बैठकर घोड़ा बनते हैं और सखा उनकी सवारी करते हैं" अगर ग्वाल सखाओं को यह बोध हो जाता कि श्रीकृष्ण भगवान थे, तब वे कभी ऐसा करने का साहस नहीं करते। इसी प्रकार भगवान भी अपने भक्तों के अंतरंग संबंध को पसंद करते हैं जिससे कि वे उनके साथ प्रिय मित्र के संबंध को निभा सके। जब श्रीकृष्ण ने पृथ्वी पर प्रसिद्ध गोवर्धन पर्वत उठाने की लीला की जिसमें उन्होंने स्वर्ग के राजा और वर्षा के देवता इन्द्र द्वारा बृज भूमि पर की गयी मूसलाधार वर्षा से बृजवासियों की रक्षा करने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी बाएँ हाथ की छोटी उंगली से उठा लिया था तब उनकी इस लीला से उनके ग्वालबाल मित्र प्रभावित नहीं हुए थे। उनकी दृष्टि में श्रीकृष्ण केवल उनके प्रिय मित्र थे और इसलिए उन्होंने विश्वास नहीं किया कि श्रीकृष्ण ने पर्वत उठाया था। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने इसका अत्यंत सुन्दर चित्रण किया है
नखधारयो गोवर्धन गिरि जब, सखन कह्यो हम गिरिधारी
(प्रेम रस मदिरा रसिया माधुरी प्रद-7)
जब श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपने बाएँ हाथ की छोटी उंगली से उठाया तब उनके ग्वाल सखाओं ने गोवर्धन पर्वत के तल पर छड़ी लगा दी और सोचने लगे कि वास्तव में उन्होंने इस पर्वत को उठाया था। तत्पश्चात इन्द्र अपनी पराजय स्वीकार करते हुए हाथी पर बैठकर वहाँ आया। उसने श्रीकृष्ण को परमात्मा के रूप में पहचाने बिना मूसलाधार वर्षा करने के लिए क्षमा मांगी। जब ग्वालबालों ने वहाँ स्वर्ग के राजा इन्द्र को आते देखा जो उनके मित्र के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए अपनी भूल के लिए क्षमा मांग रहा था। तब उन्हें बोध हुआ कि श्रीकृष्ण भगवान हैं और उन्होंने दूर से श्रीकृष्ण को भय से देखना आरम्भ कर दिया। उनकी मित्रता को भक्ति भावना, भय और श्रद्धा में परिवर्तित होता देखकर श्रीकृष्ण को शोक हुआ-"हमारे भीतर परस्पर प्रेम का आनन्द समाप्त हो चुका है। वे अब मुझे भगवान समझने लगे हैं।" अतः उन्होंने अपनी योगमाया शक्ति द्वारा ग्वालबालों ने जो भी देखा था उसे विस्मृत करा दिया और तब वे पुनः अनुभव करने लगे कि श्रीकृष्ण उनके मित्र के अलावा कुछ भी नहीं हैं।
अर्जुन श्रीकृष्ण का सखा भाव वाला भक्त था। श्रीकृष्ण के साथ उसका व्यवहार एक मित्र जैसा था इसीलिए उसने श्रीकृष्ण को अपने रथ का सारथी बनाना स्वीकार किया था। अगर उसकी भक्ति इस सत्य से प्रेरित होती कि श्रीकृष्ण समस्त सृष्टि के परम स्वामी हैं तब अर्जुन उनसे कभी ऐसी निम्न सेवा न करवाता लेकिन अब उनके अनंत वैभव और कल्पनातीत समृद्धि को देखकर श्रीकृष्ण के प्रति उसका भातृत्व भाव भय में परिवर्तित हो गया।