मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् ।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥49॥
मा-ते-तुम; न होवो; व्यथा-भयभीत; मा न हो; च-और; विमूढ-भावः-मोहित अवस्था; दृष्टा-देखकर; रुपम्-रूप को; घोरम्-भयानक; ईदृक्-इस प्रकार का; मम–मेरे; इदम्-इस; व्यपेत-भी:-भय से मुक्त; प्रीत-मनाः-प्रसन्न चित्त; पुनः-फिर; त्वम्-तुम; तत्-उस; एव-इस प्रकार; मे-मेरे; रूपम्-रूप को; इदम्-इस; प्रपश्य-देखो।
Translation
BG 11.49: मेरे भयानक रूप को देखकर तुम न तो भयभीत हो और न ही मोहित हो। भयमुक्त और प्रसन्नचित्त होकर मेरे पुरुषोत्तम रूप को देखो।
Commentary
श्रीकृष्ण निरन्तर अर्जुन को धीरज बंधाते हुए कह रहे हैं कि भयभीत होने की अपेक्षा उसे मेरे विराट रूप का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त होने पर आनंदित होना चाहिए। आगे वह कहते हैं कि अर्जुन अब भय मुक्त होकर पुनः मेरे पुरुषोत्तम रूप को देखो।