नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥23॥
नियतम्-शास्त्रों के अनुमोदन के अनुसार; सड्ग-रहितम्-आसक्ति रहित; अराग-द्वतः-राग-द्वेष से मुक्त; कृतम्-किया गया; अफल-प्रेप्सुना-कर्म-फल की इच्छा से रहित; कर्म-कर्म; यत्-जो; तत्-वह; सात्त्विकम्-सत्वगुण; उच्चये–कहा जाता है।
Translation
BG 18.23: जो कर्म शास्त्रों के अनुमोदन के अनुसार है, राग और द्वेष की भावना से रहित और फल की कामना के बिना संपन्न किया जाता है, वह सत्वगुण प्रकृति का होता है।
Commentary
तीन प्रकार के ज्ञान की विवेचना करने के पश्चात श्रीकृष्ण अब तीन प्रकार के कर्मों का वर्णन करते हैं। इतिहास में कई समाज विज्ञानी और दार्शनिकों ने उचित कर्म के संबंध में अपना-अपना मत प्रकट किया है। उनमें से कुछ के महत्वपूर्ण मत और उनके दर्शन का निम्न प्रकार से उल्लेख किया जा रहा है
1. ग्रीस के ऐपिक्यूरेनस (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व) के विश्वास के अनुसार "खाना, पीना और आनंद भोगना उचित कर्म था।"
2. इंग्लैंड के होब्बस (1588-1679) तथा फ्रांस के हैल्वेटिस (1715-1771) का दर्शन और अधिक परिष्कृत था। उन्होंने कहा कि यदि सब स्वार्थी बन जाते हैं और दूसरों का ध्यान नहीं रखते तब संसार में अराजकता फैल जाएगी। इसलिए उन्होंने अनुशंसा की थी कि निजी ज्ञान की तुष्टि के साथ-साथ हमें अन्य लोगों का भी ध्यान रखना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि पति अस्वस्थ है तो पत्नी को उसकी देखभाल करनी चाहिए और यदि पत्नी अस्वस्थ है तो पति को उसका ध्यान रखना चाहिए लेकिन उन मामलों में जहाँ दूसरों की सहायता करने से हमारे निजी हितों का टकराव होता है तब उनके परामर्श के अनुसार ऐसी स्थिति में अपने निजी हितों को प्राथमिकता प्रदान की जानी चाहिए।
3. जोसफ बटलर (1692-1752) का दर्शन इनसे परे था। उन्होंने कहा कि अपने हितों की पूर्ति करने के पश्चात दूसरों की सेवा का विचार अनुचित था। दूसरों की सहायता करना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। सिंहनी स्वयं भूखी रहकर भी अपने शावकों को दूध पिलाती है। इसलिए दूसरों की सेवा को सदैव प्राथमिकता देनी चाहिए। तथापि बटलर की सेवा की अवधारणा भौतिक दु:खों की निवृत्ति तक ही सीमित थी। यदि कोई व्यक्ति भूखा हो तो उसे भोजन खिलाया जा सकता है किन्तु इससे समस्या का वास्तव में निवारण नहीं होता क्योंकि वह व्यक्ति छः घंटे पश्चात पुनः भूख से व्याकुल हो जाएगा।
4. बटलर के पश्चात जेरेमी बेन्थम (1748-1832) तथा जॉन स्टुअर्ट मिल (1806-1873) का आगमन हुआ। उन्होंने एक उपयोगी सिद्धांत की अनुशंसा करते हुए कहा कि वही कार्य किया जाए जो बहुसंख्यक लोगों के लिए उत्तम हो। उन्होंने उचित आचरण का निर्धारण करने के लिए बहुमत को स्वीकार करने का सुझाव दिया। लेकिन यदि बहुमत गलत और पथ भ्रष्ट हो तब यह दर्शन असफल हो जाएगा। क्योंकि एक हजार अज्ञानी सामूहिक रूप से एक विद्वान के विचारों की गुणवत्ता की तुलना नहीं कर सकते।
अन्य दार्शनिकों ने यह अनुशंसा की कि अपने अंतःकरण की आवाज को स्वीकार करो। उन्होंने सुझाव दिया कि उचित आचरण निर्धारित करने का यह उत्तम मार्गदर्शक है। किन्तु समस्या यह है कि प्रत्येक व्यक्ति का अंत:करण विभिन्न प्रकार से दिशा निर्देश देता है। एक ही परिवार के दो बच्चों के अलग-अलग नैतिक मूल्य और उनका अंत:करण भिन्न-भिन्न प्रकार का होगा। इसके अतिरिक्त किसी भी व्यक्ति का अंत:करण समय के साथ परिवर्तित होता रहता है। यदि एक हत्यारे से पूछा जाए कि लोगों की हत्या करके क्या उसे बुरा लगता है? वह उत्तर देता है, "आरंभ में मुझे बुरा लगता था किन्तु बाद में ऐसा करना मुझे मच्छरों को मारने के समान मोक्ष-संन्यास योग नगण्य लगने लगा। ऐसा करने से मुझे कोई पश्चाताप नहीं होता।" उचित कार्य के संबंध में महाभारत बताती है
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषम् न समाचरेत्
श्रुतिः स्मृतः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः
(महाभारत-5.15.17)
"यदि तुम दुसरों से कुछ विशेष प्रकार के व्यवहार की आशा नहीं करते तब तुम्हें दूसरों के साथ भी वैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। परंतु सदैव यह सुनिश्चित करो कि तुम्हारा आचरण शास्त्रों के अनुमोदन के अनुसार होना चाहिए।" दूसरों के साथ वैसा व्यवहार करो जैसे आचरण की तुम उनसे अपेक्षा करते हो। बाइबिल में भी वर्णन है-"दूसरों के साथ वैसा ही करो जैसा कि वे तुम्हारे साथ करते हैं।" (लुका 6.31) यहाँ श्रीकृष्ण भी इसी प्रकार की घोषणा करते हैं कि समान रूप से शास्त्रों के अनुमोदन के अनुसार सत्वगुण में स्थित होकर किए गये कार्य का तात्पर्य किसी के द्वारा अपना कर्त्तव्य पालन करना है। वे कहते हैं कि ऐसा कार्य राग और द्वेष की भावना और कर्मफल की इच्छा रहित होकर करना चाहिए।