Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 71

श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ॥71॥

श्रद्धा-वान्–श्रद्धा से युक्त; अनसूयः-द्वेषरहित; च-तथा; शृणुयात्-सुनता है; अपि-निश्चय ही; यः-जो; नरः-वह मनुष्यः सः-वह; अपि-भी; मुक्तः-मुक्त होकर; शुभान्–पवित्र; लोकान्–लोकों को प्राप्नुयात्–प्राप्त करता है; पुण्य-कर्मणाम्-पुण्य कर्म करने वाली आत्माएँ।

Translation

BG 18.71: वे जो श्रद्धायुक्त तथा द्वेष रहित होकर केवल इस ज्ञान को सुनते हैं वे पापों से मुक्त हो जाते हैं और मेरे पवित्र लोकों को पाते हैं जहाँ पुण्य आत्माएं निवास करती हैं।

Commentary

सभी ऐसी बद्धि से संपन्न नहीं होते कि वे श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच के संवादों के गहन अर्थ को समझ सकें। यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि ऐसे मनुष्य जो श्रद्धायुक्त होकर केवल इन्हें सुनते ही हैं तब उन्हें भी इसका लाभ प्राप्त होगा। जगद्गुरु शंकराचार्य के शिष्य सानंद की कथा से इस विषय को समझा जा सकता है। वह अनपढ़ था और अन्य शिष्यों के समान अपने गुरु के उपदेशों को समझ नहीं सकता था। लेकिन जब शंकराचार्य अपना प्रवचन देते थे तब वह ध्यानपूर्वक और श्रद्धायुक्त होकर उन्हें सुनता था। एक दिन वह नदी दिन के दूसरे तट पर अपने गुरु के वस्त्र धो रहा था। कक्षा का समय होने पर अन्य शिष्यों ने प्रार्थना की-"गुरुजी, कृपया कक्षा आरम्भ करें।" शंकराचार्य ने उत्तर दिया प्रतीक्षा करें क्योंकि सानंद यहाँ नहीं आया है।" शिष्यों ने कहा, "लेकिन गुरुजी, वह कुछ भी नहीं समझ पाता है।" शंकराचार्य ने कहा-"लेकिन फिर भी वह पूर्ण श्रद्धा के साथ मेरे प्रवचन सुनता है और इसलिए मैं उसे निराश नहीं कर सकता।"

तब श्रद्धा की शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए शंकराचार्य ने पुकारा-"सानंद, कृपया यहाँ आओ।" अपने गुरु के शब्दों के सुनकर उसने कोई हिचक नहीं की। वह पानी पर दौड़ने लगा। कथा में वर्णन किया गया है कि वह जहाँ कहीं पर अपने पांव रखता था वहाँ कमल के पुष्प उसकी सहायता के लिए तैरने लगते। वह नदी पार कर दूसरे तट पर आ गया और उसने अपने गुरु को प्रणाम किया। उस समय उसके मुख से संस्कृत में गुरु की महिमा की स्तुति निर्गत हुई। अन्य शिष्य उसको सुनकर अचंभित हुए। चूंकि उसके पैरों के नीचे कमल के पुष्प खिले रहते थे इसलिए उसका नाम 'पदम्पाद पड़ गया' जिसका अर्थ 'अपने पैरों के नीचे कमल के पुष्पों वाला पुरुष' है। सानंद शंकराचार्य के चार प्रमुख शिष्यों सुरेश्वराचार्य, हस्तामलक और त्रेटकाचार्य में से एक था। उपर्युक्त श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वस्त करते हैं कि वे जो उनके पवित्र संवाद को केवल पूर्ण श्रद्धा के साथ सुनते है, वे शनैः शनैः पवित्र हो जाएंगे।