सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञाानं विद्धि सात्त्विकम् ॥20॥
सर्व-भूतेषु-समस्त जीवों में; येन-जिससे; एकम्-एक; भावम् प्रकृति; अव्ययम्-अविनाशी; ईक्षते-कोई देखता है; अविभक्तम्-अविभाजित; विभक्तेषु विभिन्न प्रकार से विभक्त; तत्-उस; ज्ञानम्-ज्ञान को; विद्धि-जानों; सात्त्विकम्-सत्वगुण।
Translation
BG 18.20: जिस ज्ञान द्वारा कोई नाना प्रकार के सभी जीवों में एक अविभाजित अविनाशी सत्य को देखता है उसे सत्वगुण प्रकृति ज्ञान कहते हैं।
Commentary
सृष्टि भौतिक जीवन और विभिन्न प्रकार के जीवों का परिदृश्य प्रकट करती है किन्तु इस प्रत्यक्ष विविधता का आधार परम भगवान ही हैं। जो मनुष्य इस प्रकार की ज्ञान दृष्टि से संपन्न हैं वे सृष्टि के निर्माण के पीछे उसी प्रकार की एकीकृत शक्ति को देखते हैं जिस प्रकार से एक विद्युत अभियंता विभिन्न प्रकार के विद्युत उपकरणों में एक समान विद्युत को प्रवाहित होते देखता है और एक सुनार भी एक ही सोने को विभिन्न प्रकार के स्वर्ण आभूषणों में परिवर्तित होते हुआ देखता है। श्रीमद्भागवतम् में वर्णन किया गया है
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्
(श्रीमद्भागवतम्-1.2.11)
"सत्य को जानने वाले कहते हैं कि सृष्टि में एक ही सत्ता के अलावा दूसरी कोई अस्तित्त्व में नहीं है।"
चैतन्य महाप्रभु ने निम्नवर्णित चार मापदण्डों के आधार पर श्रीकृष्ण को भगवान कहते हुए उन्हें 'अद्वय ज्ञान तत्त्व' (केवल एक ही जिसके समान दूसरा कोई नहीं, सृष्टि में स्थित एक ही सत्ता और सब कुछ) कह कर संबोधित किया है।
1. सहजातीय भेद शून्यः (वे सभी समान सत्ताओं में एक हैं) श्रीकृष्ण भगवान के विभिन्न रूपों जैसे राम, शिव, विष्णु इत्यादि में एक समान ही हैं क्योंकि ये एक ही भगवान की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। सभी आत्माओं में भी एक श्रीकृष्ण हैं जोकि उनका अणु अंश हैं जिस प्रकार आग की लपटें आग के लघु अंश के रूप में उसमें निहित होती हैं।
2. विजातीय भेद शून्यः (सभी विभिन्न सत्ताओं में एक) माया भगवान से पृथक है। वह जड़ है जबकि भगवान चेतन हैं तथापि माया भगवान की शक्ति है और शक्ति अपने शक्तिमान के साथ ठीक उसी प्रकार से एक साथ होती है जिस प्रकार से अग्नि की शक्ति, गर्मी और प्रकाश उससे भिन्न नहीं हैं।
3. स्वगत भेद शून्यः इसका तात्पर्य भगवान के शरीर के विभिन्न अंगों का उनसे पृथक न होने से है। भगवान के संबंध में यह आश्चर्यजनक है कि उनके शरीर का कोई भी अंग अन्य अंगों के समान कार्य कर सकता है। ब्रह्मसंहिता में वर्णन है
अग्नि यस्य सकलेन्द्रिय वृत्ति मनति
पश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरम् जगन्ति (ब्रह्मसंहिता-5.32)
"भगवान अपने प्रत्येक अंग से देख, सूंघ, खा और सोच भी सकते हैं।" इस प्रकार से भगवान के शरीर के सभी अंग उनसे पृथक नहीं है।
4. स्वयं सिद्धः (किसी अन्य सत्ता की सहायता की आवश्यकता न होना) माया और आत्मा दोनों अपने अस्तित्त्व के लिए भगवान पर निर्भर हैं। अगर वे इन्हें ऊर्जा प्रदान न करते तब इन दोनों का अस्तित्त्व समाप्त हो गया होता। अन्य शब्दों में भगवान परम स्वतंत्र हैं और उन्हें अपना अस्तित्त्व बनाए रखने के लिए किसी अन्य सत्ता की सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ती।
परम पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण उपर्युक्त चारों बिन्दुओं की अपेक्षाओं से परिपूर्ण हैं और इस प्रकार वे 'अद्वय ज्ञान तत्त्व' हैं, दूसरे शब्दों में कहें तो वे सृष्टि में व्याप्त सभी अस्तित्त्वों में विद्यमान हैं। इस ज्ञान में स्थिर होकर जब हम संपूर्ण सृष्टि को भगवान के साथ एकीकृत रूप में देखते हैं तब ऐसा ज्ञान सात्विक कहलाता है और इस ज्ञान पर आधारित प्रेम जातीय या राष्ट्रीय न होकर सार्वभौमिक होता है।