एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥16॥
एवम्-इस प्रकार; प्रवर्तितम्-कार्यशील होना; चक्रम-चक्र; न-नहीं; अनुवर्तयति-पालन करना; इह-इस जीवन में; यः-जो; अघ-आयुः-पापपूर्ण जीवन; इन्द्रिय-आरामः-इन्द्रियों का सुख; मोघम्-व्यर्थः पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुनः सः-वे; जीवति-जीवित रहता है।
Translation
BG 3.16: हे पार्थ! जो मनुष्य वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ कर्म के चक्र का पालन करने के अपने दायित्व का निर्वाहन नहीं करते, वे पाप अर्जित करते हैं, वे केवल अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिए जीवित रहते हैं, वास्तव में उनका जीवन व्यर्थ ही है।
Commentary
चक्र या चरण से तात्पर्य घटनाओं की क्रमबद्धता से है। श्लोक संख्या 3.14 में अन्न से वर्षा तक के चक्र का वर्णन किया गया है। इस संसार के कर्म चक्र में सभी जीव अपने दायित्वों का निर्वाहन करते हैं और इसके निर्विघ्न परिक्रमण में अपना योगदान देते हैं। क्योंकि हम भी सृष्टि के काल चक्र का फल भोगते हैं तब ऐसे में हमें भी सृष्टि की श्रृंखला में अपने निश्चित कर्तव्यों का पालन अवश्य करना चाहिए।
सृष्टि की इस श्रृंखला में हम मनुष्य ही मात्र ऐसे प्राणी हैं जिन्हें अपनी इच्छा के अनुसार कर्मों का चयन करने की स्वतंत्रता प्राप्त है। इसलिए या तो हम सृष्टि के चक्र के सामंजस्य में योगदान दे सकते हैं या इस ब्रह्माण्डीय संरचना के निर्बाध संचालन में विसंगति उत्पन्न कर सकते हैं। जब मानव समाज के बहुसंख्यक लोग इस विश्वव्यापी व्यवस्था के अभिन्न अंश के रूप में जीवनयापन करने के लिए अपने दायित्वों का निर्वाहन स्वीकार करते हैं तब उन्हें विपुल भौतिक समृद्धि प्राप्त होती है और उनका आध्यात्मिक विकास होता है। ऐसा काल मानव जाति के सामाजिक और सभ्य इतिहास में स्वर्ण युग कहलाता है। इसके विपरीत जब मानव जाति के अधिकांश लोग भगवान की सृष्टि के नियमों का उल्लंघन करने लगते हैं और ब्रह्मांड का अभिन्न अंग होते हुए भी अपने दायित्वों का निर्वाहन करना अस्वीकार कर देते हैं तब प्राकृत शक्ति अर्थात भगवान की माया शक्ति उन्हें दण्ड देती है और तब उनकी शान्ति और समृद्धि दुर्लभ हो जाती है।
सृष्टि के काल चक्र की रचना भगवान द्वारा अनुशासन और प्रशिक्षण हेतु तथा चेतना के विभिन्न स्तरों पर सभी मनुष्यों को ऊपर उठाने के लिए की गई है। श्रीकृष्ण अर्जुन को स्पष्ट करते हैं कि वे जो अपने लिए निर्देशित यज्ञ कर्म नहीं करते, वे अपनी इन्द्रियों के दास बन जाते हैं और पापमयी जीवन व्यतीत करते हैं इसलिए वे व्यर्थ में जीवित रहते हैं। किन्तु जो व्यक्ति दैवीय नियमों का पालन करते हैं, उनका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और वे सभी प्रकार के मानसिक विकारों से मुक्त रहते हैं।