तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमानोति पुरुषः ॥19॥
तस्मात्-अतः; असक्तः-आसक्ति रहित; सततम्-निरन्तर; कार्यम् कर्त्तव्यं; कर्म-कार्य; समाचर-निष्पादन करना; असक्तो:-आसक्तिरहित; हि-निश्चय ही; आचरन्-निष्पादन करते हुए; कर्म-कार्य; परम-सर्वोच्च भगवान; आप्नोति–प्राप्त करता है; पुरुषः-पुरुष, मनुष्य।
Translation
BG 3.19: अतः आसक्ति का त्याग कर अपने कार्य को कर्तव्य समझ कर फल की आसक्ति के बिना निरन्तर कर्म करने से ही किसी को परमात्मा की प्राप्ति होती है।
Commentary
श्लोक 3.8-3.16 में श्रीकृष्ण पुरजोर आह्वान करते हैं कि जिन मनुष्यों ने अभी तक सिद्धावस्था प्राप्त नहीं की है उन्हें अपने नियत कर्मों का पालन करना चाहिए। श्लोक 3.17-3.18 में उन्होंने व्यक्त किया है कि ज्ञानातीत संतों के लिए नियत कर्मों का पालन करना आवश्यक नहीं होता। अतः अर्जुन के लिए कौन-सा मार्ग अति उपयुक्त है? श्रीकृष्ण उसके लिए कर्मयोगी बनने की सन्तुति करते हैं न कि कर्म संन्यासी बनने की। अब वे श्लोक 3.20-3.26 में इसके कारणों की व्याख्या करेंगे।