Bhagavad Gita: Chapter 3, Verse 10

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥10॥

सह-के साथ; यज्ञाः-यज्ञों; प्रजाः-मानव जाति; सृष्ट्वा-सृजन करना; पुरा–आरम्भ में; उवाच-कहा; प्रजापतिः-ब्रह्मा; अनेन इससे; प्रसविष्यध्वम्-अधिक समृद्ध होना; एषः-इन; वः-तुम्हारा; अस्तु-होगा; इष्ट-काम-धुक-सभी वांछित पदार्थं प्रदान करने वाला;।

Translation

BG 3.10: सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा ने मानव जाति को उनके नियत कर्तव्यों सहित जन्म दिया और कहा “इन यज्ञों का धूम-धाम से अनुष्ठान करने पर तुम्हें सुख समृद्धि प्राप्त होगी और इनसे तुम्हें सभी वांछित वस्तुएँ प्राप्त होंगी।”

Commentary

प्रकृति के सभी उपादान भगवान की सृष्टि की प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं। भगवान की सृष्टि के समस्त उपादान स्वाभाविक रूप से जो भी सृष्टि से प्राप्त करते हैं उन्हें वे पुनः परम भगवान की सृष्टि को लौटा देते हैं। सूर्य, पृथ्वी के अस्तित्व को बनाए रखने और जीवन निर्वाह के लिए ताप और प्रकाश की व्यवस्था करता है। भूमि अपनी मिट्टी से हमारे पालन-पोषण के लिए खाद्य पदार्थ उत्पन्न करती है और उत्तम जीवन शैली के लिए अपने गर्भ में आवश्यक खनिज पदार्थों को समाए रखती है। वायु हमारे शरीर में प्राण शक्ति को संचालित करती है और ध्वनि की शक्ति को प्रसारण के योग्य बनाती है। हम मानव भी भगवान की सृष्टि रचना के अभिन्न अंग हैं। वायु द्वारा हम सांस लेते हैं, धरती जिस पर हम चलते हैं, जिस जल का हम सेवन करते हैं और सूर्य का प्रकाश जो हमारे जीवन को प्रकाशित करता है। ये सभी हमारे लिए भगवान की सृष्टि के अद्भुत उपहार हैं। जिस प्रकार हम अपने जीवन को बनाए रखने के लिए इन उपहारों का उपयोग करते हैं उसी प्रकार से हमें अपने नियत कर्त्तव्यों का निष्पादन करते हुए सृष्टि में व्याप्त प्रकृति द्वारा प्रदत्त शक्तियों का उपयोग भगवान की सेवा के प्रति करके उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए। ऐसे ही यज्ञ की अपेक्षा भगवान हम मनुष्यों से करते हैं। 

अपने हाथ का उदाहरण ही लें जो कि हमारे शरीर का अभिन्न अंग है। यह अपने पोषण हेतु शरीर से रक्त, ऑक्सीजन, विटामिन आदि प्राप्त करता है और इसके बदले में यह शरीर के लिए आवश्यक कार्य करता है। यदि हाथ यह सोचने लगे कि शरीर की सेवा करना एक बोझ है और यह निर्णय कर ले कि शरीर ही उसकी सेवा करे तब हाथ एक क्षण के लिए भी चेतन नहीं रह सकता। यदि वह शरीर के लिए यज्ञ के रूप में कर्म करता है तब हाथ का निजी स्वार्थ भी पूरा हो जाता है। समान रूप से जीवात्माएँ भगवान का अणु अंश हैं और भगवान की अनन्त सृष्टि में हम सब को भी अपनी भूमिका का निर्वाहन करना चाहिए। जब हम अपने समस्त कार्यों को यज्ञ के रूप में भगवान की सेवा में अर्पित करते हैं तब इससे हमारे निजी हित की भी स्वाभाविक रूप से तुष्टि होती है। 

प्रायः हवन कुंड में अग्नि प्रज्जवलित कर हवन करने को यज्ञ कर्म कहा जाता है। परन्तु भागवद्गीता में वर्णित 'यज्ञ' में धार्मिक ग्रंथों में लिखित सभी नियत कर्म भी सम्मिलित हैं जिन्हें हम भगवान को अर्पित करने के भाव से सम्पन्न करते हैं।

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