Bhagavad Gita: Chapter 3, Verse 6

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥6॥

कर्म-इन्द्रियाणि कर्मेन्द्रियों के घटक; संयम्य-नियंत्रित करके; यः-जो; आस्ते-रहता है; मनसा-मन में; स्मरन्–चिन्तन; इन्द्रिय-अर्थात-इन्द्रिय विषय; विमूढ-आत्मा-भ्रमित जीव; मिथ्या-आचार:-ढोंग; सः-वे; उच्यते-कहलाते हैं।

Translation

BG 3.6: जो अपनी कर्मेन्द्रियों के बाह्य घटकों को तो नियंत्रित करते हैं लेकिन मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हैं, वे निःसन्देह स्वयं को धोखा देते हैं और पाखण्डी कहलाते हैं।

Commentary

 संन्यासी जीवन के प्रति आकर्षित होकर लोग प्रायः अपने कर्मों का परित्याग कर देते हैं और बाद में उन्हें ज्ञात होता है कि उनका वैराग्य सांसारिक विषयभोगों से विरक्त रहने के लिए अपेक्षित अनुपात के अनुरूप नहीं है। इससे मिथ्याचरिता की ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है जहाँ लोग स्वयं बाह्य दृष्टि से आध्यात्मवादी होने का ढोंग करते हैं जबकि आंतरिक रूप से निकृष्ट मनोभावों के साथ अधम उद्देश्यों के लिए जीवन निर्वाह करते हैं। इसलिए संसार में कर्मयोगी के रूप में संघर्ष करना पाखण्डपूर्ण संन्यासी जीवन व्यतीत करने से श्रेष्ठ है। अपरिपक्व अवस्था में संन्यास लेकर अपने जीवन की समस्याओं से दूर भागना आत्मा के उन्नयन की यात्रा में आगे बढ़ने का उपाय नहीं है। संत कबीर ने कहा है:

मन न रंगाए हो, रंगाए योगी कपड़ा। 

जतवा बढ़ाए योगी धुनिया रमौले,

दढ़िया बढ़ाए योगी बनि गयेले बकरा ।।

 "हे तपस्वी योगी! तुमने अपने वस्त्रों को भगवा (गहरे पीले रंग में) रंग से रंगवा लिया है किन्तु तुमने अपने मन को वैराग्य के रंग से रंगने पर ध्यान नहीं दिया। स्वयं को संन्यासी दर्शाने के लिए तुमने प्रतीक के रूप में अपने केश बढ़ा लिए हैं और अपने शरीर पर राख मल ली है किन्तु भीतर से समर्पण भाव के बिना बाहरी रूप से मुख पर दाढ़ी बढ़ाकर अपना रूप बकरे जैसा बना लिया है।" इस प्रकार श्रीकृष्ण इस श्लोक में यह व्यक्त करते हैं कि जो लोग बाह्य दृष्टि से इन्द्रियों के विषय भोगों का त्याग करते हैं किन्तु मन से निरन्तर उनका चिन्तन करते हैं, वे मिथ्याचारी हैं और स्वयं को धोखा देते हैं। इस तत्त्व को समझाने के लिए पुराणों में तावृत और सुवृत दो भाइयों की कथा का वर्णन इस प्रकार से है-एक दिन दोनों भाई अपने घर से श्रीमद्भागवतम् का प्रवचन सुनने मंदिर जा रहे थे। बीच मार्ग में मूसलाधार वर्षा होने लगी। अतः वे आश्रय लेने के लिए समीप के भवन में चले गये। जहाँ उन्होंने पाया कि वे वैश्यालय में आ गये हैं जहाँ पर तिरस्कृत नारियाँ अपने ग्राहकों का मनोरंजन करने के लिए नृत्य कर रही थीं। बड़ा भाई तावृत वहाँ से बाहर निकल कर वर्षा में भीगता हुआ मन्दिर की ओर जाने लगा। छोटे भाई सुवृत ने वर्षा में भीगने से बचने के लिए कुछ समय और वहाँ बैठने में कोई बुराई नहीं समझी। तावृत मन्दिर पहुंचा और वहाँ बैठकर प्रवचन सुनने लगा किन्तु वह मन से पश्चाताप करने लगा-“यह कैसा नीरस करने वाला प्रवचन है। मैंने बड़ी भूल की, मुझे वैश्यालय में रुकना चाहिए था। मेरा भाई अवश्य ही वहाँ की रंगरलियों में आनन्दित हो रहा होगा।" दूसरी ओर सुवृत यह सोचने लगता है-“मैं इस पाप के स्थान पर क्यों रुक गया? मेरा भाई पुण्य आत्मा है और वह अवश्य भागवत के ज्ञान से अपने मन और बुद्धि को निमज्जित कर रहा होगा। मुझे भी साहस जुटा कर वर्षा से भयभीत हुए बिना मंदिर पहुँचना चाहिए था। आखिरकार मैं कोई नमक का बना हुआ नहीं हूँ जो थोड़ी वर्षा में घुल जाता।" जब वर्षा समाप्त हुई तो दोनों भाई अपने-अपने स्थानों से बाहर निकले

और एक-दूसरे की दिशा की ओर बढ़े। जिस क्षण में वह एक-दूसरे से मिले तब अचानक उन पर बिजली गिरी और उसी स्थान पर उनकी मृत्यु हो गयी। तब यमदूत वहाँ आकर तावृत को नरक ले जाने लगे तब तावृत ने आपत्ति करते हुए कहा-"तुमसे भूल हुई है। मैं तावृत हूँ। वह मेरा भाई था जो कुछ समय पहले वैश्यालय में बैठा था। अतः तुम्हें उसे नरक में ले जाना चाहिए।" यमदूतों ने उत्तर दिया-"हमने कोई भूल नहीं की। तुम्हारा भाई वहाँ वर्षा से बचने के लिए बैठा था किन्तु उसका मन भागवत के प्रवचन में तल्लीन था। दूसरी ओर प्रवचन सुनते समय तुम्हारे मन में वैश्यालय में ठहरने की लालसा उत्पन्न हो रही थी।" तावृत ने एकदम वैसा ही किया जैसा कि श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में व्याख्या की है। उसने बाह्य दृष्टि से तो विषय भोगों के प्रति विरक्ति प्रकट की थी किन्तु मन से विषय भोगों की तृप्ति का चिन्तन किया था। यह अनुचित प्रकार का वैराग्य है। 

अब अगले श्लोक में श्रीकृष्ण वास्तविक वैराग्य का वर्णन करेंगे।

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