नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥18॥
न-कभी नहीं; एव-वास्तव में; तस्य-उसका; कृतेन कर्त्तव्य का पालन; अर्थ:-प्राप्त करना; न-न तो; अकृतेन कर्त्तव्य का पालन न करने से; इह-यहाँ; कश्चन-जो कुछ भी; न कभी नहीं; च-तथा; अस्य-उसका; सर्वभूतेषु-सभी जीवों में; कश्चित्-कोई; अर्थ-आवश्यकता; व्यपाश्रयः-निर्भर होना।
Translation
BG 3.18: ऐसी आत्मलीन आत्माओं को अपने कर्तव्य का पालन करने या उनसे विमुख होने से कुछ पाना या खोना नहीं होता और न ही उन्हें अपनी निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य जीवों पर निर्भर रहने की आवश्यकता होती है।
Commentary
ये आत्मलीन संत आत्मा की अलौकिक अवस्था में स्थित रहते हैं। उनके सभी कर्म लोकातीत
और भगवान की सेवा के लिए होते हैं। अतः सांसारिक मनुष्यों के लिए शारीरिक स्तर पर नियत वर्णाश्रम धर्म के आधार पर नियत कर्तव्यों का पालन करना उनके लिए अनिवार्य नहीं होता। यहाँ कर्म और भक्ति में भेद जानना आवश्यक है। इससे पूर्व श्रीकृष्ण कर्म अर्थात नियत सांसारिक कर्तव्यों के संबंध में व्याख्या कर रहे थे और यह कह रहे थे कि उन्हें भगवान को समर्पित करना चाहिए। यह मन की शुद्धि और उसे सांसारिक विकारों से ऊपर उठने में सहायता करता है किन्तु आत्मलीन जीवात्मा पहले ही भगवान में विलीन होकर मन को शुद्ध कर चुकी होती है।
ऐसे ज्ञानातीत संत प्रत्यक्ष रूप से भक्ति या पवित्र आध्यात्मिक क्रियाओं, जैसे कि-ध्यान, पूजा, कीर्तन और गुरु की सेवा आदि में तल्लीन रहते हैं। यदि ऐसे आत्मलीन संत सांसारिक कर्मों से विरक्त रहते हैं तो उसे पाप नहीं माना जाता। यदि वे चाहें तो अपने सांसारिक कर्मों का पालन करना आगे जारी रख सकते हैं किन्तु उनका पालन करना उनके लिए अनिवार्य नहीं होता।
इतिहास में दो प्रकार के संत हुए है:
1. प्रह्लाद, ध्रुव, अम्बरीष, पृथु और विभीषण जिन्होंने ज्ञानातीत अवस्था को प्राप्त करने के पश्चात भी अपने सांसारिक कर्तव्यों का निरन्तर पालन किया। ये सब कर्मयोगी थे। बाह्य रूप से वे अपने शारीरिक कर्तव्यों का पालन करते रहे और आंतरिक दृष्टि से उनका मन भगवान में अनुरक्त रहा।
2. शंकराचार्य, माध्वाचार्य, रामानुजाचार्य, चैतन्य महाप्रभु जैसे संत सांसारिक कर्मों से विमुख रहे और इन्होंने वैरागी जीवन स्वीकार किया। ये सब कर्म संन्यासी थे जो शरीर और मन सहित आंतरिक और बाह्य दोनों दृष्टि से भगवान की भक्ति में तल्लीन रहे। इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि आत्मलीन संत के लिए दोनों विकल्प होते हैं। अब अगले श्लोक में श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करेंगे कि वह अर्जुन के लिए इनमें से कौन-से विकल्प का चयन करने की संतुति करेंगे।