सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥33॥
सदृशम् तदानुसार; चेष्टते-कर्म करता है; स्वस्याः -अपने; प्रकृतेः-प्रकृति के गुणों का; ज्ञानवान् बुद्धिमान; अपि यद्यपि; प्रकृतिम्-प्रकृति को; यान्ति–पालन करते हैं; भूतानि–सभी जीव; निग्रहः-दमन; किम्-क्या; करिष्यति-करेगा।
Translation
BG 3.33: बुद्धिमान लोग भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करते हैं क्योंकि सभी जीव अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से प्रेरित होते हैं, किसी को दमन से क्या प्राप्त हो सकता है।
Commentary
इस श्लोक में श्रीकृष्ण पुनः इस बिन्दु की ओर लौटते हैं कि कर्म करना निष्क्रिय रहने से श्रेष्ठ है। अपने स्वभाव से प्रेरित होकर लोग अपने व्यक्तिगत गुणों के अनुसार कार्य करने में प्रवृत्त होते हैं जबकि सैद्धान्तिक रूप से शिक्षित लोग भी अपने अनन्त पूर्वजन्मों के संस्कारों, इस जन्म के कर्म 'प्रारब्ध' तथा अपने मन और बुद्धि के निजी लक्षणों की गठरी को अपने साथ उठाए रहते हैं। उन्हें प्रतीत होता है कि इस प्रकृति और प्रवृत्ति के वेग को रोकना कठिन है। यदि वैदिक ग्रंथ उन्हें सभी प्रकार के कर्मों का त्याग करने का और केवल आध्यात्मिकता में तल्लीन होने का उपदेश देते तब इससे असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो गयी होती। ऐसी कृत्रिम विमुखता का प्रतिकूल प्रभाव होता। आध्यात्मिक उन्नति का उपयुक्त और सरल मार्ग प्रकृति और प्रवृत्ति की असीम शक्ति का प्रयोग करना और इनकी दिशा को भगवान की ओर परिवर्तित करना है। जिस स्थिति में हम हैं वहीं से हमें आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होना आरम्भ करना चाहिए और ऐसा करने के लिए हमें सर्वप्रथम अपनी वर्तमान मनोदशा को स्वीकार करना होगा और तत्पश्चात इसे सुधारना होगा।
हम देख सकते हैं कि जैसे जानवर भी अपने विलक्षण स्वभाव के अनुसार कार्य करते हैं। चीटियाँ एक सामाजिक प्राणी की भांति अपने समुदाय की देखभाल के लिए भोजन एकत्रित करती हैं। ऐसा गुण मनुष्य में कठिनता से देखने को मिलता है। एक गाय का अपने बछड़े से आन्तरिक लगाव होता है। एक क्षण के लिए भी जब वह उसकी आंखों से ओझल होता है तब गाय अत्यंत व्याकुल हो जाती है। कुत्ते की स्वामिभक्ति के गुण की तुलना भी सभ्य मनुष्यों से नहीं की जा सकती। समान रूप से मनुष्य भी अपनी प्रकृति से प्रेरित होते हैं। क्योंकि अर्जुन योद्धा था इसलिए श्रीकृष्ण ने उससे कहा कि 'तुम्हारा क्षत्रिय तुल्य स्वभाव तुमसे युद्ध की अपेक्षा करता है' (भगवद्गीता 18.59)। 'तुम अपने जन्म के स्वभाव से जनित कर्म द्वारा बाध्य होकर इसे करोगे' (भगवद्गीता 18.60)। हमें अपने लक्ष्य को संसार सुखों से हटाते हुए उसे भगवद्प्राप्ति की ओर परिवर्तित कर अपने स्वभाव का परिष्कार करना चाहिए और अपने नियत कर्तव्यों का पालन बिना आसक्ति और विरक्ति भाव से भगवत सेवा की भावना के साथ करना चाहिए।