इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुतस्तेन एव सः ॥12॥
इष्टान्–वांछित; भोगान्–जीवन की आवश्यकताएँ; हि-निश्चय ही; व:-तुम्हें; देवा:-स्वर्ग के देवता; दास्यन्ते प्रदान करेंगे; यज्ञभाविता:-यज्ञ कर्म से प्रसन्न होकर; तैः-उनके द्वारा; दत्तान्–प्रदान की गई वस्तुएँ; अप्रदाय–अर्पित किए बिना; एभ्यः-इन्हें; यः-जो; भुङ्क्ते सेवन करता है; स्तेनः-चोर; एव–निश्चय ही; सः-वे।
Translation
BG 3.12: तुम्हारे द्वारा सम्पन्न यज्ञों से प्रसन्न होकर देवता जीवन निर्वाह के लिए वांछित वस्तुएँ प्रदान करेंगे किन्तु जो प्राप्त वस्तुओं को उनको अर्पित किए बिना भोगते हैं, वे वास्तव में चोर हैं।
Commentary
ब्रह्मांड के प्रशासक के रूप में देवता हमें वर्षा, वायु, अन्न, खनिज और उपजाऊ भूमि आदि प्रदान करते हैं। देवताओं द्वारा प्रदत्त इन सभी उपहारों के लिए हमें उनका आभारी होना चाहिए। देवता अपने कर्तव्य का पालन करते हैं और यह अपेक्षा करते हैं कि हम मनुष्य भी निष्ठापूर्वक अपने दायित्वों का निर्वहन करें। क्योंकि ये सभी स्वर्ग के देवता परम शक्तिमान भगवान के सेवक हैं और जब वे किसी को भगवान के लिए यज्ञ कर्म करते हुए देखते हैं तब वे प्रसन्न होते हैं और प्रतिफल के रूप में ऐसी जीवात्माओं के लिए भौतिक सुख-सुविधाओं की व्यवस्था करते हैं। इसलिए यह कहा जाता है कि जब हम दृढ़संकल्प के साथ भगवान की सेवा करते हैं तब ब्रह्माण्ड की सभी शक्तियाँ हमारी सहायता करना आरम्भ कर देती हैं।
कुछ लोग प्रकृति द्वारा प्रदत्त उपहारों को भगवान की सेवा के निमित्त नहीं समझते अपितु उन्हें अपने सुख का साधन मानते हैं। ऐसी मनोवृत्ति को श्रीकृष्ण ने चोरी की मानसिकता कहा है। प्रायः लोग यह प्रश्न करते हैं-"मैं सदाचार का जीवन व्यतीत करता हूँ, मैं किसी का अहित नहीं करता और न ही मैं कोई चोरी करता हूँ किन्तु मैं न तो भगवान की उपासना में विश्वास करता हूँ और न ही भगवान के अस्तित्व में। तब मैं क्या कुछ अनुचित कर रहा हूँ?" इस प्रश्न का उत्तर उपर्युक्त श्लोक में मिलता है। सामान्य मनुष्यों की दृष्टि से ऐसे व्यक्ति कुछ अनुचित नहीं करते किन्तु वे परमात्मा की दृष्टि में चोर माने जाते हैं। जैसे कि यदि हम किसी के घर जाते हैं और गृह स्वामी से परिचित न होते हुए भी उसके सोफे पर बैठ जाते हैं, रेफ्रिजरेटर से खाने-पीने के पदार्थों का सेवन करने लगते हैं और उसके विश्राम कक्ष का प्रयोग करते हैं। फिर हम यह दावा करते हैं कि हम कुछ अनुचित नहीं कर रहे हैं। किन्तु कानून की दृष्टि में हमें चोर माना जाएगा क्योंकि उस घर से हमारा कोई संबंध नहीं है। इसी प्रकार यह संसार जिसमें हम रहते हैं, वह भगवान द्वारा बनाया गया है और उसकी प्रत्येक वस्तु भगवान की ही है। यदि हम सृष्टि के इन सुख साधनों पर भगवान के आधिपत्य को स्वीकार किए बिना अपने सुख के लिए इनका उपभोग करते हैं तब दैवीय दृष्टिकोण से हम निश्चित रूप से चोरी करते हैं।
भारतीय इतिहास के सुप्रसिद्ध राजा चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु आचार्य चाणक्य से पूछा-"एक राजा का अपनी प्रजा के प्रति क्या कर्त्तव्य है?" आचार्य चाणक्य ने उत्तर दिया-"राजा प्रजा के सेवक के अलावा कुछ नहीं है। भगवान ने उसे राज्य के नागरिकों की सेवा करने का दायित्व सौंपा है ताकि वे भगवद्धाम की अपनी यात्रा में उन्नति कर सकें।" चाहे कोई राजा, व्यवसायी, किसान या श्रमिक हो, सभी व्यक्ति भगवान के संसार के अभिन्न अंग हैं और उनसे परमात्मा की सेवा के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करने की अपेक्षा की जाती है।