यस्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥17॥
यः-जो; तु-लेकिन; आत्म-रतिः-अपनी आत्मा में ही रमण करना; एव-निश्चय ही; स्यात्-रहता है; आत्म-तृप्तः-आत्म संतुष्टि; च-तथा; मानव:-मनुष्य; आत्मनि-अपनी आत्मा में; एव-निश्चय ही; च-और; सन्तुष्ट:-सन्तुष्ट; तस्य-उसका; कार्यम्-कर्त्तव्य; न-नहीं; विद्यते-रहता।
Translation
BG 3.17: लेकिन जो मनुष्य आत्मानंद में स्थित रहते हैं तथा जो प्रबुद्ध और पूर्णतया आत्म संतुष्ट होते हैं, उनके लिए कोई नियत कर्त्तव्य नहीं होता।
Commentary
केवल वे मनुष्य जो बहिर्मुख विषय भोगों की कामनाओं का त्याग कर देते हैं वही आनन्दमयी और आत्मलीन रह सकते हैं। सांसारिक कामनाएँ ही हमारे बंधन का मूल कारण हैं, 'यह होना चाहिए, और यह नहीं होना चाहिए।' श्रीकृष्ण आगे इस अध्याय के 37वें श्लोक में अभिव्यक्त करते हैं कि कामनाएँ ही सभी प्रकार के पापों का कारण हैं इसलिए इनका त्याग करना चाहिए। जैसा कि पहले ही (दूसरे अध्याय के 64वें में श्लोक में) में किए गए उल्लेख के अनुसार अपने चित्त में सदैव यह ध्यान रखें कि जब भी वे कामनाओं का त्याग करने का उपदेश देते हैं तब उनका अभिप्राय सांसारिक कामनाओं का त्याग करने से है न कि आध्यात्मिक उन्नति करने की अभिलाषा या भगवद्प्राप्ति की इच्छा का त्याग करने से है।
फिर भी सर्वप्रथम सांसारिक कामनाएँ क्यों उत्पन्न होती हैं? जब हम स्वयं को शरीर मानते हैं, तब हमें प्रतीत होता है कि शरीर और मन अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए लालायित रहते हैं और ये हमें माया के क्षेत्र में धकेल देते हैं। संत तुलसीदास ने व्यक्त किया है:
जिब जिब ते हरि ते बिलगानो तब ते देह गेह निज मान्यो।
माया बस स्वरूप बिसरायो तेहि भ्रम ते दारुण दुःख पायो।।
"जब जीवात्मा भगवान से विमुख हो जाती है तब माया शक्ति उस पर भ्रम का आवरण डाल देती है। इसी भ्रम के कारण हम स्वयं की पहचान शरीर के रूप में करना आरम्भ कर देते हैं और सदा के लिए स्वयं को भूल जाने के कारण हमें अत्यन्त कष्ट सहन करने पड़ते हैं।
" लेकिन जो ज्ञानी पुरुष यह अनुभव करते हैं कि आत्मा का कोई भौतिक स्वरूप नहीं है और यह दिव्य है इसलिए यह अविनाशी है। संसार के नश्वर पदार्थ अविनाशी आत्मा की क्षुधा को शान्त नहीं कर सकते और इसलिए सांसारिक विषय भोगों के लिए ललचाना मूर्खता है। इस प्रकार आत्मज्ञान से आलोकित आत्माएँ अपनी चेतना को भगवान के साथ एकीकृत कर देती हैं और अपने भीतर भगवान के असीम आनन्द की अनुभूति करती हैं।
सांसारिकता में लिप्त आत्माओं के लिए नियत कर्म किसी भी प्रकार से ऐसी सिद्धावस्था प्राप्त आत्माओं पर लागू नहीं होते क्योंकि उन्होंने पहले ही ऐसे सभी कर्मों का लक्ष्य प्राप्त कर लिया होता है। उदाहरणार्थ जब तक कोई स्नातक का विद्यार्थी रहता है तब उसके लिए विश्वविद्यालय के नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है और जब वह ग्रेजुएट होकर डिग्री प्राप्त कर लेता है तब फिर उसके लिए विश्वविद्यालय के नियम अनावश्यक हो जाते हैं। ऐसी प्रबुद्ध आत्माओं के लिए यह कहा गया है: 'ब्रह्मवित् श्रुति मूर्धनी' अर्थात 'वे जो भगवान के साथ अपना एकत्व स्थापित कर लेते हैं तब वे वेदों पर पाँव रखकर चलते हैं' अर्थात उनके लिए वेदों के नियमों का पालन करना कभी आवश्यक नहीं होता।
वेदों का लक्ष्य जीवात्मा को भगवान के साथ एकनिष्ठ करने के लिए उनकी सहायता करना है। एक बार जब आत्मा को भगवद्प्राप्ति हो जाती है तब फिर आत्मा को उसके गंतव्य तक पहुँचाने में सहायता करने वाले वेदों के नियम उस पर लागू नहीं होते। ऐसी आत्मा उनके अधिकार क्षेत्र से परे हो जाती है। उदाहरणार्थ पंडित विवाह समारोह में पुरुष और महिला को वैवाहिक गठबंधन में बांध देता है। एक बार जब समारोह समाप्त हो जाता है तब वह कहता है-“अब तुम पति और पत्नी हो, मैं जा रहा हूँ।" उसका काम समाप्त हो जाता है। यदि पत्नी बाद में यह कहती है-"पंडित जी, आपने विवाह समारोह के दौरान जो प्रतिज्ञाएँ करवायी थीं उनका मेरे पति द्वारा पालन नहीं किया जा रहा है।" तब पंडित यह उत्तर देगा-"यह मेरे अधिकार क्षेत्र से बाहर है, मेरा काम तुम दोनों का वैवाहिक गठबंधन करवाना था और यह कार्य हो चुका है।" समान रूप से वेद आत्मा को परमात्मा के साथ एकीकृत करने में सहायता करते हैं। इस प्रकार भगवद्प्राप्ति हो जाने पर वेदों का काम समाप्त हो जाता है। फिर ऐसी पुण्यात्माओं के लिए वैदिक कर्तव्यों का पालन करने की कोई बाध्यता नहीं होती।