Bhagavad Gita: Chapter 2, Verse 53

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥53॥

श्रुतिविप्रतिपन्ना-वेदों के सकाम कर्मकाण्डों की ओर आकर्षित न होना; ते तुम्हारा; यदा-जब; स्थास्यति-स्थिर हो जाएगा; निश्चला–अस्थिर; समाधौ-दिव्य चेतना; अचला-स्थिर; बुद्धिः-बुद्धि; तदा-तब; योगम् योग; अवाप्स्यसि तुम प्राप्त करोगे।

Translation

BG 2.53: जब तुम्हारी बुद्धि का वेदों के अलंकारमयी भागों के प्रति आकर्षण समाप्त हो जाए और वह दिव्य चेतना में स्थिर हो जाए तब तुम पूर्ण योग की उच्च अवस्था का प्राप्त कर लोगे।

Commentary

 जब साधक आध्यात्मिक मार्ग में उन्नति करते हैं, तब ऐसे साधकों का भगवान से अटूट संबंध स्थापित हो जाता है। उस समय उन्हें यह ज्ञात होता है कि वे पहले वेदों के जिन कर्मकाण्डों का पालन कर रहे थे, वे सब बोझिल और समय व्यर्थ करने वाले हैं। फिर वे यह जानना चाहते हैं कि क्या उन्हें अपनी साधना के साथ-साथ धार्मिक अनुष्ठानों का निष्पादन भी जारी रखना चाहिए और यदि वे धार्मिक अनुष्ठानों को तिलांजली देकर केवल अपनी साधना भक्ति में समर्पित हो जाते हैं तब ऐसा करने पर वे कोई अपराध तो नहीं करेंगे? ऐसे लोग अपने संदेह का उत्तर इस श्लोक में पा सकते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि वेदों के अलंकारमयी खण्डों के प्रति आकर्षित हुए बिना साधना भक्ति में स्थिर होना कोई अपराध नहीं है अपितु यह उच्चतम आध्यात्मिक चेतना की अवस्था है। 14वीं शताब्दी के महान संत माध वेन्द्र पुरी ने इस मनोभावना को दृढ़ता से व्यक्त किया है। वह वैदिक ब्राह्मण थे और धार्मिक विधियों का पालन करने में अत्यंत व्यस्त रहते थे लेकिन जब उन्होंने सन्यास ग्रहण किया तब वे पूर्णरूप से श्रीकृष्ण की भक्ति में तल्लीन हो गए। अपने जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने अपनी भावना को इस प्रकार से व्यक्त कियाः

सन्ध्यावन्दनभद्रमस्तु भवते भोः स्नान तुभ्यं नमः। 

भो देवाः पितरश्चतर्पणविधौ नाहं क्षमः क्षम्यताम् ।।

यत्र क्वापि निषद्य यादव कुलोत्तमस्य कंसद्विषः।

स्मारं स्मारमा हरामि तदलं मन्ये किमन्येन मे।।

 "मैं सभी प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों से क्षमा याचना करता हूँ क्योंकि मैं इनका पालन करने में समय व्यर्थ नहीं करना चाहता। इसलिए मेरी त्रिकाल प्रार्थनाओं और मेरे प्रिय संध्या वंदन (जनेउ धारण करने वाले मनुष्य के लिए दिन में तीन बार पालन किए जाने वाले धार्मिक विधि विध न) प्रातः कालीन स्नान, देवताओं के यज्ञ के भाग, पितरों को तर्पण इत्यादि कृपया मुझे क्षमा करें। अब मैं जहां भी बैठता हूँ तो मैं केवल कंस के शत्रु श्रीकृष्ण का स्मरण करता हूँ जो मुझे सांसारिक बंधनों से मुक्त करने के लिए पर्याप्त है। 

श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में समाधौ-अचला शब्द का प्रयोग किया है जिसका तात्पर्य दिव्य चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थित होने की अवस्था से है। समाधि शब्द की रचना सम् धातु (समत्व) और धि (बुद्धि) से हुई है जिसका तात्पर्य 'बुद्धि की पूर्ण साम्यावस्था' है। जो मनुष्य चेतना की उच्चावस्था में स्थिर हो जाता है उसे सांसारिक आकर्षण विचलित नहीं कर सकते तथा वह समाधि या पूर्ण योग की अवस्था को प्राप्त कर लेता है।