नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥40॥
न–नहीं; इह-इस मे; अभिक्रम-प्रयत्न; नाश:-हानि; अस्ति–है; प्रत्यवायः-प्रतिकूल परिणाम; न-कभी नहीं; विद्यते-है; सु-अल्पम्-थोड़ा; अपि यद्यपि; अस्य-इसका; धर्मस्य-व्यवसाय; त्रयते-रक्षा करता है; महतः-महान; भयात्-भय से।
Translation
BG 2.40: इस चेतनावस्था में कर्म करने से किसी प्रकार की हानि या प्रतिकूल परिणाम प्राप्त नहीं होते अपितु इस प्रकार से किया गया अल्प प्रयास भी बड़े से बड़े भय से हमारी रक्षा करता है।
Commentary
हमारे सामने सबसे बड़ा भय यह है कि अगले जन्म में हमें संभवतः मानव देह प्राप्त होने के स्थान पर कहीं निम्न योनियों जैसे पशु, पक्षी आदि की योनियों में जन्म लेना और नरक लोकों आदि में न जाना पड़े। हमें यह आत्मसंतुष्टि नहीं हो सकती कि अगले जन्म में हमारे लिए मनुष्य योनि सुरक्षित रहेगी क्योंकि पुनर्जन्म का निर्धारण हमारे कर्मों और इस जीवन की चेतनावस्था के अनुसार होता है।
पृथ्वी पर 84 लाख योनियों का अस्तित्व पाया जाता है। मनुष्य से निम्न योनियों-पशु-पक्षी, मीन, कीट-कीटाणु, आदि में मनुष्यों के समान बुद्धि नहीं होती। यद्यपि वे मनुष्य की भांति खाने, सोने और अपनी रक्षा व संभोग आदि गतिविधियों में संलग्न रहते हैं। जीवन का परम लक्ष्य प्राप्त करने के प्रयोजनार्थ मानवजाति को बुद्धि के गुण से सम्पन्न किया गया है ताकि वह इसका प्रयोग स्वयं के आत्म उत्थान के लिए कर सके। अगर मनुष्य अपनी बुद्धि का प्रयोग पशुओं की भांति केवल खाने, सोने, संभोग और अपनी रक्षा करने आदि जैसे कार्यों में भोग विलास के लिए करता है तब यह मानव जीवन को व्यर्थ करने के समान है। यदि कोई मनुष्य जीवन के क्षणिक सुख के लिए खाद्य पदार्थों का सेवन करने में ही जीवन व्यतीत कर देता है तब अगले जन्म में उस व्यक्ति के लिए सुअर का शरीर अति उपयुक्त होगा और उस मनुष्य को अगले जन्म में सुअर का शरीर मिलेगा। अगर कोई निद्रा को ही जीवन का लक्ष्य बनाता है तब भगवान उसकी रुचि के अनुरूप पोलर बीयर के शरीर को उपयुक्त समझ कर अगले जन्म में उसे ध्रुवीय भालू की पशु योनि में भेजेंगे। इसलिए हमारे सामने सबसे बड़ा भय यह है कि शायद अगले जन्म में हमें मानव शरीर नहीं मिलेगा। वेदों मे वर्णन किया गया है:
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः
(केनोपनिषद्-2.5)
"हे मनुष्यों! मानव जीवन पाने का बहुत कम अवसर मिलता है। यदि तुम इसका उपयोग परम लक्ष्य को प्राप्त करने में नहीं करते तब तुम्हें घोर संकटों का सामना करना पड़ेगा।" कठोपनिषद् में आगे यह वर्णन है कि
इह चेदशकद् बोद्धं प्राक् शरीरस्य विस्त्रसः।
ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ।।
(कठोपनिषद्-2.3.4.)
"यदि तुम इस जीवन में भगवद्प्राप्ति का प्रयास नहीं करते तो तुम्हें कई जन्मों तक 84 लाख योनियों में चक्कर लगाना पड़ेगा।"
एक बार जब हम आध्यात्मिक मार्ग पर चलना आरम्भ कर देते हैं लेकिन यदि हम इस जीवन में अपनी आध्यात्मिक यात्रा को पूर्ण नहीं कर पाते तब भगवान हमारी इस ओर चलने की इच्छा को देखते हुए हमें पुनः मनुष्य का शरीर देते हैं ताकि हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा को पुनः वहीं से प्रारम्भ कर सके जहाँ से हमने इसे छोड़ा था। इस प्रकार से हम बड़े जोखिम से बच जाते हैं।
श्रीकृष्ण यह भी कहते हैं कि इस मार्ग का अनुसरण करने के प्रयास से किसी प्रकार की हानि नहीं होती क्योंकि वर्तमान जीवन में हम जो भौतिक पदार्थ और धन सम्पदा इकट्ठा करते हैं, उसे बाद में मृत्यु के समय हम इसी संसार मे छोड़ जाते हैं। लेकिन यदि हम भक्ति योग के मार्ग पर चलते हुए आध्यात्मिक उन्नति करते हैं तब उसे भगवान हमारे पुण्य कर्मों में जोड़ते हैं और उसका फल हमें अगले जन्म में देते हैं ताकि हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा को पुनः वहीं से आरम्भ करने के योग्य हो सकें जहाँ से हमने इसे छोड़ा था। इस प्रकार अर्जुन को इसके लाभों से अवगत करवाने के पश्चात श्रीकृष्ण अब उसे बिना आसक्ति के निष्काम भाव से कर्मयोग के मार्ग पर चलने का उपदेश देना आरम्भ करते हैं।