तमुवाच हृषीकेशं प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥10॥
तम्-उससे; उवाच-कहा; हृषीकेश:-मन और इन्द्रियों के स्वामी, श्रीकृष्ण ने; प्रहसन-हँसते हुए; इव-मानो; भारत-भरतवंशी धृतराष्ट्र; सेनयोः-सेनाओं के; उभयो:-दोनों की; मध्ये–बीच में; विषीदन्तम्-शोकमग्न; इदम् यह; वचः-शब्द।
Translation
BG 2.10: हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! तत्पश्चात् दोनों पक्षों की सेनाओं के मध्य शोककुल अर्जुन से कृष्ण ने हँसते हुए ये वचन कहे।
Commentary
अर्जुन के शोकायुक्त कथनों के प्रतिकूल श्रीकृष्ण की प्रसन्नता यह प्रदर्शित कर रही थी कि परिस्थितियों से वे निराश नहीं थे अपितु इसके विपरीत वे इन परिस्थितियों में पूर्णतया शांत थे। ज्ञानयुक्त होकर ही कोई सभी प्रकार की परिस्थितियों में ऐसी समवृत्ति प्रदर्शित कर सकता है। अपने अधूरे ज्ञान के कारण हम जिन परिस्थितियों का सामना करने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं, उन्हें हम दोषी मानते हैं, दुःखी होते हुए उन पर खीझते हैं, उनसे दूर भागना चाहते हैं और उन्हें अपने दुर्भाग्य के लिए उत्तरदायी ठहराते हैं। किन्तु प्रबुद्ध आत्माएँ हमें अवगत कराती हैं कि भगवान की यह सृष्टि सभी प्रकार से पूर्ण है तथा शुभ और अशुभ परिस्थितियाँ हमारे सम्मुख दिव्य प्रयोजन हेतु उत्पन्न होती हैं। ये सब हमारे आध्यात्मिक उत्थान की व्यवस्था करती हैं ताकि हम पूर्णता को प्राप्त करने की अपनी यात्रा में आगे बढ़ सके। जो लोग इस रहस्य को समझते हैं, वे कभी कठिन परिस्थितियों से विचलित नहीं होते बल्कि दृढ़ता और शांति से इनका सामना करते हैं।
छान्दोग्योपनिषद् में वर्णन है कि भूकंप, चक्रवात, बाढ़ और तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाएँ भी भगवान द्वारा सृष्टि की गति के लिए निर्मित योजना का ही मुख्य भाग हैं। यह भी कहा जाता है कि भगवान जानबूझ कर कठिन परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं ताकि लोगों को उनकी आध्यात्मिक उन्नति की यात्रा में शिथिल होने से रोका जाए।
जब मनुष्य आत्मसंतुष्ट हो जाता है तब प्राकृतिक आपदाएँ मनुष्य को अपनी पूरी शक्ति लगाकर इनका सामना करने में समर्थ बनाने के लिए उत्पन्न होती हैं जिससे उसकी आत्मिक उन्नति सुनिश्चित होती है। यह ध्यान देना आवश्यक है कि जिस उन्नति की हम बात कर रहे हैं उसका तात्पर्य भौतिक विलासिता को बढ़ाने से नहीं है अपितु यह आत्मा की दिव्यता का आन्तरिक प्राकट्य है।