Bhagavad Gita: Chapter 2, Verse 50

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥50॥

बुद्धि-युक्त:-बुद्धि से युक्त; जहाति-मुक्त हो सकता है; इह-इस जीवन मे; उभे दोनों; सुकृत-दुष्कृते-शुभ तथा अशुभ कर्म; तस्मात्-इसलिए; योगाय-योग के लिए; युज्यस्व-प्रयास करना; योगः-योगः कर्मसु-कौशलम्-कुशलता से कार्य करने की कला।

Translation

BG 2.50: जब कोई मनुष्य बिना आसक्ति के कर्मयोग का अभ्यास करता है तब वह इस जीवन में ही शुभ और अशुभ कर्मफलों से छुटकारा पा लेता है। इसलिए योग के लिए प्रयास करना चाहिए जो कुशलतापूर्वक कर्म करने की कला है।

Commentary

'कर्मयोग' विज्ञान के संबंध में उपदेश सुनकर प्रायः लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि यदि वे परिणाम के प्रति आसक्ति का त्याग कर देते हैं तब उनकी कार्यकुशलता कम हो जाएगी। भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि बिना निजी स्वार्थ के कार्य करने से हमारे कार्य की गुणवत्ता कम नहीं होती अपितु हम पहले से अधिक कुशलता प्राप्त कर लेते हैं। 

एक निष्ठावान सर्जन का उदाहरण लें जो लोगों का ऑपरेशन करते समय चाकू से चीर-फाड़ (सर्जरी) का कार्य करता है और वह समभाव से अपना कर्त्तव्य निभाता है, चाहे रोगी जीवित बचे या मर जाए वह आहत नहीं होता। क्योंकि वह केवल निःस्वार्थ भाव से अपनी पूरी योग्यता के साथ अपना कार्य करता है और उसकी परिणाम के प्रति कोई आसक्ति नहीं है। इसलिए यदि रोगी ऑपरेशन करते समय मर जाता है तब सर्जन को हत्या करने का अपराध बोध नहीं होता। यदि उसी सर्जन के अपने इकलौते पुत्र का ऑपरेशन किया जाना हो तब ऐसी दशा में वह स्वयं उसका ऑपरेशन करने का साहस नहीं जुटा पाता क्योंकि अब उसमें परिणाम के प्रति आसक्ति का भाव आ जाता है और उसमें यह भय व्याप्त हो जाता है कि वह कुशलतापूर्वक ऑपरेशन करने के योग्य है या नहीं।

वह दूसरे सर्जन की सहायता लेना चाहता है। इससे ज्ञात होता है कि परिणाम के प्रति आसक्ति हमें अपेक्षाकृत अधिक कुशल नहीं बनाती अपितु इसके विपरीत आसक्ति हमारी कार्यकुशलता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। 

इसके स्थान पर यदि हम बिना आसक्ति के कार्य करते हैं तब हम आकुलता, घबराहट, आशंका और अधीरता से रहित होकर अत्यधिक कुशलता से कार्य कर सकते हैं। इसी प्रकार से अर्जुन का निजी उदाहरण भी इस तथ्य को उजागर करता है कि फल की आसक्ति को त्यागने से कार्य की कुशलता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। 

भगवद्गीता का उपदेश सुनने से पूर्व अर्जुन विजयी होकर राजपाट पाने की इच्छा के साथ युद्ध करना चाहता था। श्रीकृष्ण से भगवद्गीता का उपदेश सुनने के पश्चात् उसने युद्ध लड़ा क्योंकि यह भगवान की सेवा थी और श्रीकृष्ण की भी इसमें प्रसन्नता थी। वह सदैव एक योद्धा रहा यद्यपि उसकी आंतरिक प्रेरणा परिवर्तित हो गई थी। 

बिना मोह के किए गए कर्त्तव्य पालन ने उसे किसी भी प्रकार से कम सक्षम नहीं बनाया। वास्तव में उसने अति उत्साह और वीरता से युद्ध लड़ा क्योंकि युद्ध करने का उसका कार्य प्रत्यक्ष रूप से भगवान की सेवा थी।