योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥48॥
योगस्थः-योग में स्थिर होकर; कुरु-करो; कर्मणि-कर्त्तव्यः सङ्गम्-आसक्ति को; त्यक्त्वा-त्याग कर; धनञ्जय-अर्जुन; सिद्धि-असिद्धयोः-सफलता तथा विफलता में; समः-समभाव; भूत्वा-होकर; समत्वम्-समभाव; योग–योग; उच्यते-कहा जाता है।
Translation
BG 2.48: हे अर्जुन! सफलता और असफलता की आसक्ति को त्याग कर तुम दृढ़ता से अपने कर्तव्य का पालन करो। यही समभाव योग कहलाता है।
Commentary
समता का भाव जो हमें सभी परिस्थितियों को शांतिपूर्वक स्वीकार करने के योग्य बनाता है और यह इतना प्रशंसनीय है कि भगवान ने इसे 'योग' अर्थात भगवान के साथ एकत्व होना बताया है। यह समबुद्धि पिछले श्लोक में वर्णित ज्ञान का अनुसरण करने से आती है। जब हम यह जान जाते हैं कि प्रयास करना हमारे हाथ में है और परिणाम सुनिश्चित करना हमारे नियंत्रण मे नहीं है तब हम केवल अपने कर्तव्यों के पालन की ओर ध्यान देते हैं। फलों की प्राप्ति भगवान के सुख के लिए है और हमें उन्हें भगवान को अर्पित करना चाहिए। अब ऐसी स्थिति में यदि हम यश और अपयश, सफलता और असफलता, सुख और दुख दोनों को समान रूप से भगवान की इच्छा मानते हुए ग्रहण करना सीख लेते हैं तब हमारे भीतर ऐसा समभाव विकसित होता है जिसकी व्याख्या भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा की गयी है।
यह श्लोक जीवन की उथल-पुथल का अति व्यावहारिक समाधान है। यदि हम समुद्र में नौका चलाते हैं तब यह आशा करना स्वाभाविक है कि समुद्र की लहरें नौका को हिला सकती हैं। यदि हम हर समय यह सोचकर व्याकुल होते है कि लहरें नाव से टकरायेंगी तब हमारे दुखों का कोई अंत नहीं होगा और यदि हम समुद्र में लहरें उठने की अपेक्षा नहीं करते तब हम यह चाहेंगे कि समुद्र अपनी प्राकृतिक विशेषताओं और शक्तियों के विपरीत बहने लगे। लहरों की समुद्र से अविछिन्नता अद्भुत चमत्कार है। उसी प्रकार से जब हम जीवन रूपी समुद्र को पार करते हैं तब हमारे सम्मुख लहरों के समान अनेक बाधाएँ आती हैं जो हमारे नियंत्रण से परे होती हैं।
यदि हम संघर्ष करते हुए प्रतिकूल परिस्थितियों का उन्मूलन करना चाहते हैं तब भी हम कष्टों को टालने में असमर्थ होंगे। यदि हम अपने मार्ग में आने वाली सभी कठिनाईयों का सामना करना सीख लेते हैं और उन्हें भगवान की इच्छा पर छोड़ देते हैं तब इसे ही वास्तविक 'योग' कहा जाएगा।