यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥58॥
यदा-जब; संहरते-संकुचित कर लेता है; च-भी; अयम् यह; कर्म:-कछुआ; अङ्गानि–अंग; इव-वैसे ही; सर्वशः-पूरी तरह; इन्द्रियाणि-इन्द्रियाँ इन्द्रिय-अर्थभ्यः-इन्द्रियविषयों से; तस्य-उसकी; प्रज्ञा-दिव्य चेतना; प्रतिष्ठिता-स्थित।
Translation
BG 2.58: जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को उनके विषय भोगों से खींच लेने के लिए उसी प्रकार से योग्य होता है, जैसे एक कछुआ अपने अंगो को संकुचित करके उन्हें कवच के भीतर कर लेता है, वह दिव्य ज्ञान में स्थिर हो जाता है।
Commentary
इन्द्रियों की तुष्टि हेतु उसके विषयों से संबंधित इच्छित पदार्थों की आपूर्ति करने का प्रयास ठीक वैसा ही है जैसे जलती आग में घी की आहुति डालकर उसे बुझाने का प्रयास करना। इससे अग्नि कुछ क्षण के लिए कम हो जाती है किन्तु फिर एकदम और अधिक भीषणता से भड़कती है। इस प्रकार भगवद्गीता में वर्णन किया गया है कि इच्छाएँ कभी समाप्त नहीं होती और जब उनकी तुष्टि की जाती है तब वे और अधिक प्रबल हो जाती हैं। श्रीमद्भागवतम् में भी वर्णन किया गया है-
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते ।।
(श्रीमद्भागवतम्-9.19.14)
"जैसे आग में घी की आहुति डालने से वह शांत नहीं होती अपितु इससे आग की लपटें और भीषणता से भड़कती है। उसी प्रकार इन्द्रियों की तृष्टि करने से वे शांत नहीं होतीं।" इन इच्छाओं की तुलना शरीर के खाज रोग से की जा सकती है। खाज कष्टदायक होती है और खुजलाहट करने की प्रबल इच्छा उत्पन्न करती है। खुजलाहट समस्या का समाधान नहीं है, कुछ क्षण इससे राहत मिलती है और फिर यह खुजलाहट अधिक वेग से बढ़ती है। यदि कोई इस खाज को कुछ समय तक सहन कर लेता है तब इसका दंश दुर्बल होकर धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। यह खाज से राहत पाने का रहस्य है। यही तर्क कामनाओं पर भी लागू होता है। मन और इन्द्रियाँ सुख के लिए असंख्य कामनाएँ उत्पन्न करती हैं लेकिन जब तक हम इनकी पूर्ति के प्रयत्न में लगे रहते हैं तब ये सब सुख मृग-तृष्णा की भांति भ्रम के समान होते हैं। किन्तु जब हम भगवान का अलौकिक सुख प्राप्त करने के लिए इन सब कामनाओं का त्याग कर देते हैं तब हमारा मन और इन्द्रियाँ शांत हो जाती हैं।
इसलिए प्रबुद्ध व्यक्ति मन और इन्द्रियों का स्वामी बन जाता है। यही स्पष्ट करने के लिए इस श्लोक में कछुए का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। कछुआ संकट के समय अपने अंगों और सिर को अपने खोल के भीतर कर लेता है। संकट समाप्त होने पर कछुआ अपने अंगों और सिर को खोल के बाहर निकालता है और अपने मार्ग पर आगे बढ़ने लगता है। प्रबुद्ध आत्मा भी इसी प्रकार से अपने मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण रखती है और परिस्थितियों की आवश्यकता के अनुरूप उन्हें संकुचित और उनका विस्तार कर सकती है।