एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥72॥
एषा-ऐसी; ब्राह्मी-स्थितिः-भगवत्प्राप्ति की अवस्थाः पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; न कभी नहीं; एनाम्-इसको;प्राप्य-प्राप्त करके; विमुह्यति-मोहित होता है; स्थित्वा-स्थित होकर; अस्याम्-इसमें; अन्तकाले-मृत्यु के समय; अपि-भी; ब्रह्म-निर्वाणम्-माया से मुक्ति; ऋच्छति-प्राप्त करता है।
Translation
BG 2.72: हे पार्थ! इस अवस्था में रहने वाली प्रबुद्ध आत्मा जब ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेती है, वह फिर कभी भ्रमित नहीं होती। मृत्यु के समय यह सिद्ध पुरुष जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है और भगवान के परम धाम में प्रवेश करता है।
Commentary
ब्रह्म का अर्थ भगवान तथा स्थिति का अर्थ भगवत्प्राप्ति की अवस्था है। जब आत्मा अन्त:करण को शुद्ध कर लेती है (कई बार मन और बुद्धि दोनों को संयुक्त रूप से अन्त:करण कह कर संबोधित किया जाता है) तब भगवान अपनी दिव्य कृपा प्रदान करते हैं, जैसा कि श्लोक संख्या 2.64 में वर्णित है। अपनी कृपा द्वारा वे आत्मा को दिव्य ज्ञान, दिव्य आनन्द और दिव्य प्रेम प्रदान करते हैं। भगवान ये सब दिव्य शक्तियाँ आत्मा को भगवत्प्राप्ति करने के समय प्रदान करते हैं।
उसी क्षण भगवान आत्मा को माया के बंधनों से मुक्त कर देते हैं। फिर संचित कर्म अर्थात् अनन्त जन्मों के संचित कर्म समाप्त हो जाते हैं तथा अविधा अर्थात् भौतिक संसार के अनन्त जन्मों की अज्ञानता दूर हो जाती है। त्रिगुण अर्थात् माया के तीन गुण समाप्त हो जाते हैं, त्रिदोष अर्थात् सांसारिक बंधनों के तीन दोषों का भी अंत हो जाता है। पंच क्लेश अर्थात् मायिक बुद्धि के पांच विकार नष्ट हो जाते हैं, पंच कोष अर्थात् माया शक्ति के पांच आवरण भी जल जाते हैं। इससे आगे के क्रम में आत्मा सदा के लिए माया के बंधनों से मुक्त हो जाती है। भगवत्प्राप्ति की अवस्था प्राप्त करने पर आत्मा को जीवनमुक्त कहा जाता है अर्थात् शरीर में वास करते हुए भी आत्मा मुक्त रहती है। फिर मृत्यु के समय जब मुक्त आत्मा भौतिक शरीर से अलग होती है, तब वह भगवान के परम धाम में प्रवेश करती है।
ऋग्वेद में वर्णित है। तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः।
(ऋग्वेद-1.22.20)
"एक बार जब आत्मा भगवान को पा लेती है, तब वह सदा के लिए उससे एक हो जाती है। इसके पश्चात् माया का अंधकार उस पर कभी हावी नहीं हो पाता"। माया से सर्वदा मुक्ति को निर्वाण, मोक्ष इत्यादि कहा जाता है। फलस्वरूप मुक्ति ही भगवत्प्राप्ति का वास्तविक परिणाम है।