Bhagavad Gita: Chapter 2, Verse 64

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥64॥

राग–अनुरागद्वेष-विमुखता; वियुक्तेः-मुक्त; तु-लेकिन; विषयान्–इन्द्रिय विषयों को; इन्द्रियैः-इन्द्रियों द्वारा; चरन्-भोग करते हुए; आत्मवश्यैः-मन को अपने वश में करने वाला; विधेय-आत्मा-मन को नियंत्रित करता है; प्रसादम्-भगवत्कृपा को; अधिगच्छति–प्राप्त करता है।

Translation

BG 2.64: लेकिन जो मन को वश में रखता है वह इन्द्रियों के विषयों का भोग करने पर भी राग और द्वेष से मुक्त रहता है और भगवान की कृपा को प्राप्त करता है।

Commentary

 यह विनाश की प्रक्रिया विषय भोगों का चिन्तन करने से आरम्भ होती है। सुखों की लालसा करना आत्मा के लिए उसी प्रकार सहज है जिस प्रकार से भौतिक शरीर की प्यास समाप्त होने की इच्छा। यह विचार करना भी कठिन है-"मैं कभी सुखों का चिन्तन नहीं करूंगा", क्योंकि यह आत्मा के लिए असहज है। इसका सरल उपाय यह है कि सुख का चिन्तन उचित दिशा अर्थात् भगवान में हो। यदि हम बार-बार यह स्मरण करते हैं कि भगवान में ही सुख है तब भगवान में हमारी भक्ति विकसित होगी। यह दिव्य प्रेम भौतिक आसक्ति के समान मन को दूषित नहीं करेगा अपितु उसे शुद्ध कर देगा। भगवान शुद्ध तत्त्व हैं और जब हम अपने मन को उनमें लीन करते हैं तब मन भी शुद्ध हो जाता है। इस प्रकार श्रीकृष्ण हमें मोह और कामनाओं का त्याग करने का उपदेश देते हैं। यहाँ वे केवल लौकिक मोह और कामनाओं के संबंध में चर्चा कर रहे हैं। आध्यात्मिक आसक्ति और कामनाओं का त्याग नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि वास्तव में ये अति वंदनीय हैं। मन के शुद्धिकरण के लिए इनका संवर्धन आवश्यक है। हम कामनाओं का जितना दहन करेंगे, हमें उतना ही अधिक भगवत्प्रेम प्राप्त होगा और हमारा मन शुद्ध होगा। ज्ञानीजन इस तथ्य को समझ नहीं पाते तथा वे सभी प्रकार की आसक्तियों का त्याग करने की अनुशंसा करते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे लोग जो अपने मन को निष्काम भाव से मुझ में स्थिर करते हैं, वे माया के तीन गुणों से ऊपर उठ जाते हैं और वे परब्रह्म की अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं (भगवद्गीता 14.26)। 

भगवद्गीता के आगे के अध्यायों जैसे (8.7, 8.14, 9.22, 9.34, 10.10, 12.8, 11.54, 18. 55, 18.58, 18.65) आदि में वे बार-बार अर्जुन को अपना मन भगवान में स्थिर करने की प्रेरणा देते हैं। राग और द्वेष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। द्वेष और कुछ न होकर नकारात्मक आसक्ति है। जिस प्रकार से संसार के विषय भोगों का मन में बार-बार चिन्तन करने से आसक्ति उत्पन्न होती है उसी प्रकार से द्वेष के कारण घृणा भी मन में प्रविष्ट हो जाती है। इस प्रकार भौतिक पदार्थों में आसक्ति और द्वेष दोनों का मन पर समान रूप से प्रभाव पड़ता है। वे इसे दूषित करते हैं और माया के तीन गुणों में धकेल देते हैं। जब मन, राग और द्वेष दोनों से मुक्त हो जाता है और भगवान की भक्ति में तल्लीन हो जाता है तब वह मनुष्य भगवान की कृपा प्राप्त कर अनन्त आनंद प्राप्त करता है। इस दिव्य सुख को पाकर मन संसार के सुखों का भोग करने पर भी विषयों की ओर आकर्षित नहीं होता। इस प्रकार से स्थितप्रज्ञ मनीषी इन्द्रियों के विषयों स्वाद, स्पर्श, गंध, श्रवण, रूप का हमारे समान भोग करते हैं लेकिन फिर भी वे आसक्ति और द्वेष दोनों से मुक्त रहते हैं।